इसमें से कैसी शक्तिका निर्माण होता है। कितने ही लोग मूर्तिको पत्थर समझते हैं परन्तु भावनासे क्या नहीं हो जाता? भावनासे पूर्ण होनेके कारण ही आज श्री रामदासजी गौड़ मुझे अपने घर श्री रामकी मूर्ति दिखाने ले गये थे।
मैं देहातका अर्थशास्त्र जानता हूँ, इसीसे मैं अपनेको जुलाहा कहता हूँ। मैं भंगी-चमार बनता हूँ, क्योंकि मैं उनके कष्टोंको जानता हूँ। मैं चरखेका दीवाना हूँ—लैला-मजनूसे भी बढ़कर दीवाना! किसी विद्यार्थीको चरखेमें विश्वास न हो, तो भी वह केवल विद्याके ध्यानसे विद्यापीठमें आ सकता है। किन्तु विद्यापीठ किसी सिद्धान्तके लिए ही चलाया जाना चाहिए। ईश्वर इस विद्यापीठकी उन्नति करे।
महात्माजीका भाषण समाप्त हो जानेपर श्री भगवानदासजीने विद्यार्थियोंकी ओरसे महात्माजीसे प्रश्न किया कि आप चरखे द्वारा देशकी उन्नति करना चाहते हैं। क्या इसका यह अर्थ है कि आप इसीको हमारा उपास्यदेव बनाना चाहते हैं?
महात्माजीने कहा कि हाँ, यही उसका ठीक अर्थ है।
श्री भगवानदासजी : यदि देशको उन्नतिका और भी कोई उपाय हो तो उसका उपदेश देकर कृतार्थ कीजिए। प्रत्येक विद्यापीठका कोई विशेष प्राण-सिद्धान्त होता है। यह विद्यापीठ किस सिद्धान्तको विशेष प्राणकी तरह अपनाये? मेरा खन्त यह है कि इस विद्यापीठके विद्यार्थी जो कि हिन्दू है, "कर्मणा वर्णः" के सिद्धान्तको ग्रहण करें तो यही सिद्धान्त इस विद्यापीठका विशेष प्राण हो जाये। मैं चरखको आपद्-धर्म मानता हूँ परन्तु, देवताकी—लक्ष्मी, सरस्वती और अन्नपूर्णाकी उपासना केवल चरखेसे कैसे होगी यह मैं नहीं समझ पाया। हमें राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन करना है, स्वराज पाना है। यह 'कर्मणा वर्णः' के सिद्धान्तपर चलनेसे हो सकता है। अस्पृश्यता दूर करनमें भी इसका मनपर कुछ प्रभाव पड़ेगा।
महात्माजीने कहा :
मैं वर्ण केवल कर्मणा नहीं, जन्मना भी मानता हूँ। चरखेको मैंने प्रधान स्थान दिया है, परन्तु इसीको मैं सर्वस्व नहीं कहता। चरखेको प्रधान स्थान इसलिए देना होगा कि करोड़ों हिन्दुस्तानियोंकी कंगालीको दूर करनेका इससे बढ़कर उपाय नहीं है। इससे लक्ष्मीकी व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक शक्ति मिलती है। सरस्वतीके लिए विद्यापीठ है। हमारी पुरानी सभ्यतामें बड़ा मैल भर गया है। अस्पृश्यताका रोग मिट जानेसे सारा मैल दूर हो जायेगा। हम अस्पश्यताको निकाल सके तो हमारा सुधार हो जायगा। चौबीस घंटेमें आधा घंटे ही चरखा काते और साढ़े तेईस घंटे चाहे जो करे, परन्तु अनिवार्य रूपसे आधा घंटा कातना चाहिए। इस विद्यापीठका विशेष प्राण-सिद्धान्त क्या होना चाहिए मैं यह बता सकनेके अयोग्य हूँ। यह बात श्री भगवानदासजी ही बता सकते हैं।
- आज, १९–१०–१९२५