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सिविल सर्विसमें दाखिल होने के लिए युवक गण क्यों इतना कठिन परिश्रम करते है, और पानीकी तरह पैसा बहाते हैं? वे उसमें अपना अपमान तो नहीं ही समझते, साथ ही वे उसमें गौरव मानते हैं। जब वे परीक्षामें उत्तीर्ण होते है, उनके मित्र उनका सत्कार करते हैं, और जब सिविल सविसमें उन्हें कहीं नौकरी मिल जाती है, उन्हें बधाईके तौरपर अभिनन्दन-पत्र भी दिये जाते हैं। लाखों लोगोंपर हुक्म चला सकना, संगीनके जोरपर कर उगाहना और वह भी अक्सर ऐसे लोगोंसे जिनमें कर देनेकी सामर्थ्य नहीं है, यह सब क्या कांग्रेसकी सेवा करनेसे अधिक मानास्पद है? कांग्रेसमें तो प्रेम और सेवाके अधिकारके सिवाय दूसरा कोई अधिकार नहीं होता और वेतन भी मात्र निर्वाह के लायक ही दिया जाता है। यदि यह दलील दी जाये कि कांग्रेसमें एक अस्वस्थ परम्परा है कि उसमें एक ही साथ वैतनिक और अवैतनिक दोनों तरहके लोग होते है, तो सरकारी नौकरियोंमें भी यही पाया जाता है। इस सरकारका जहाँ एक वैतनिक नौकर है, वहाँ इसके साथमें दसों अवैतनिक सेवक भी है। और यह स्थिति हर सरकारके लिए अनिवार्य है। सरकारके सेवकोंके इन दो वर्गोंमें अक्सर एक-दूसरेके प्रति ईर्ष्या भी हुआ करती है। इसलिए जहाँतक इस बातको मैं समझ सका हूँ, कांग्रेसकी नौकरीमें दाखिल होनेसे अनिच्छा होनेका सिर्फ एक ही कारण है, और वह है उसका नयापन और अस्थायित्व। दूसरे सब कारण कमोबेश काल्पनिक ही है। सच तो यह है कि जब कांग्रेसको भी सच्ची प्रतिष्ठा मिल जायेगी—आज उसे यह प्राप्त नहीं है और वह लोकप्रिय भी पूरी तरहसे नहीं, बल्कि तुलनात्मक दृष्टिसे ही है—उस समय एक चपरासी भी राष्ट्रकी सेवा करने में और अपनी योग्यतासे कुछ कम वेतन लेने में अपनी इज्जत समझेगा। इस बीचमें कांग्रेस संगठनके तमाम ईमानदार वैतनिक कार्यकर्त्ताओंसे—चाहे वे केन्द्रमें हों या शिक्षा, खादी अथवा स्वराज्यवादी दलसे सम्बन्धित काममें लगे हुए हों—अनुरोध करूँगा कि वे अपनी ईमानदारी, निष्ठा और लगनशीलताके बलपर कांग्रेसकी सेवा और कांग्रेस संस्थाके प्रति लोगोंमें आकर्षण और रुचि पैदा करें। जिन्हें इस बातका एहसास है कि वेतन लेकर राष्ट्र-सेवाका काम स्वीकार करते समय उन्होंने उसमें जितना भी समय और ध्यान देना तय किया था उतना वे दे रहे हैं, उनको कांग्रेसके वैतनिक सेवक होनेका कुछ भी बुरा नहीं मानना चाहिए। जैसे-जैसे हम रचनात्मक कार्यमें प्रगति करते जायेंगे, वैसे-वैसे हमें अधिक वैतनिक सेवकोंकी आवश्यकता होती जायगी। हम लोग राष्ट्रकी हैसियतसे इतने गरीब हैं कि हमें अपना सब समय देनेवाले बहुत-से अवैतनिक सेवक मिल ही नहीं सकते हैं। हमें अधिकाधिक वैतनिक सेवकोंका ही सहारा लेना होगा। इसलिए देश-सेवाका काम करने के लिए जरूरत होनेपर वेतन लेनेमें अपमानका अनुभव करनेकी प्रवृत्तिसे हम जितनी जल्दी छुटकारा पा जायें, राष्ट्रके लिए उतना ही अच्छा होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १५–१०–१९२५