पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/३६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्रत दिया जाता है। वहाँ उन्हें पका हुआ अन्न परोसकर खिलाया जाता है। मुझे अपनी यह उदारता दिखानेके निर्दोष मन्तव्यसे और मुझे आनन्द देनेके शुभ हेतुसे मालिकोंने मुझको ठीक उनके जीमनेके समय बुलाया था। मैंने बिना विचारे हाँ कह दिया था। लेकिन, वहाँका दृश्य देखकर मैं सूरीसे भी ज्यादा दुःखी और व्याकुल हुआ। जीमनेवालोंके बीचसे मुझे मोटरमें तो नहीं ले जाया गया। लेकिन मैं जहाँ भी जाऊँ वहाँ मेरे पीछे लोगोंकी टोली तो रहती ही है। यह सारी टोली उन खानेवालोंके बीचसे होकर निकली। बेचारे खानेवालोंको उनके पैर तो छू ही जाते। कुछ देर तक उन बेचारोंका खाना भी बन्द रहा। अगर उनकी आत्माने मुझे फिर भी आशीर्वाद दिया हो तो उनका संयम और उनकी उदारता धन्य है। कहाँ धूल-भरा आँगन और कहाँ बर्फ-जैसा सफेद वह ऊँचा महल! मुझे तो ऐसा ही लगा कि यह महल गरीबोंका उपहास कर रहा है, और मेरे अन्तरमें यह भाव जगा कि उनके बीचसे होकर बड़ी लापरवाहीसे चलनेवाले वे गरीबनवाज भी उस उपहासमें शामिल हैं!

लोगोंको इस तरह खिलाने में क्या पुण्य हो सकता है? मुझे तो भावनाके बिलकुल शुद्ध होते हुए भी इसके अविचारपूर्ण और अज्ञानमय होनेके कारण इसमें पाप ही दिखाई दिया। ऐसे सदाव्रत देशमें जगह-जगह चलते है। इससे गरीबी, आलस्य, पाखण्ड और चोरी आदि दोष बढ़ते हैं। कारण, बिना मेहनत किये खानेको मिल जाये तो मेहनत क्यों करें, जिन्हें ऐसा सोचनेकी आदत पड़ गई हो वे लोग आलसी और फिर कंगाल बन जाते हैं। निठल्ला आदमी घर घालता है, इस न्यायके अनुसार ऐसे गरीब लोग चोरी आदि सीखते हैं, और स्वयं अपने प्रति जो अन्य अनाचार करते है सो अलग। इन सदाव्रतोंका अन्तिम परिणाम तो मुझे बुरा ही दिखाई देता है। धनवान लोगोंको अपनी दानशीलताके विषयमें यह विचार अवश्य करना चाहिए कि उसके उपयुक्त पात्र कौन हैं। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि सभी दान पुण्य नहीं है। वेशक, लूले-लंगड़ों अथवा बीमारीसे पीड़ित अशक्त लोगोंको सदावत देना ठीक है। लेकिन उन्हें लिखाने में भी विवेक होना चाहिए। हजारोंके सामने तो अशक्य-लाचार लोगोंको भी न खिलाया जाये। उन्हें खिलानेके लिए एकान्त, शान्त और अच्छी जगह होनी चाहिए। असलमें तो ऐसे लोगोंके लिए विशेष आश्रम होने चाहिए। हिन्दुस्तानमें ऐसे इक्के-दुक्के आश्रम है भी। अशक्त-लाचार लोगोंको खिलानेकी इच्छा रखनेवाले दानी गृहस्थोंको चाहिए कि वे या तो ऐसे अच्छे आश्रमोंको पैसा भेज दें, या जहाँ ऐसे आश्रम न हों वहाँ आवश्यकतानुसार उनकी स्थापना करें।

अशक्त गरीबोंके लिए कोई काम भी ढूंढ़ना चाहिए। जिस साधनसे लाखोंका उपकार हो सके, वह साधन तो केवल चरखा ही है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २–८–१९२५