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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आचार-विचारवाले ब्राह्मण परिवारोंमें गुजरातके ब्राह्मण वर अथवा कन्या क्यों न ढूँढ़े। यदि इतना सुधार करने की भी हिम्मत नहीं की जाती तो हिन्दू-धर्मके अति संकुचित हो जानेका भय है। बंगालकी लड़की गुजरातमें आये और गुजरातकी लड़की बंगालमें जाये यह बात कुछ सर्वथा अनिष्ट नहीं है। वर्णकी रक्षा करनेवाले यदि छोटी-छोटी जातियोंकी रक्षा करनेका भी प्रयत्न करेंगे तो ये छोटी-छोटी जातियाँ तो गई-गुजरी हो ही चुकी हैं, सम्भव है कि वर्ण भी नष्ट हो कर रहें।

आज वर्ण भी तो छिन्न-भिन्न हो गये हैं। सभीको इस विषयपर पूरा-पूरा विचार करना चाहिए। पहले गुजरातके ही वर्ण मिलकर अपने व्यवहारका विस्तार बढ़ायें तो वे बहुत-कुछ आगे बढ़ सकेंगे। क्या सभी वर्णोका अपनी छोटी-छोटी जातियोंको एक कर सकना सम्भव नहीं है?

छोटी-छोटी जातियोंके अगुओंमें यदि इसपर विचार करने जितना उत्साह भी न हो तो अन्य व्यक्तियोंको ही पहल करनी चाहिए।

लेकिन मुझे बात तो बहिष्कार ही की करनी थी। छोटी-छोटी जातियोंके बारेमें मैंने केवल बहिष्कृत व्यक्तियोंकी मानसिक शान्तिके विचारसे ही इतनी बातें कहीं। जुल्म चाहे घरका हो, चाहे बाहरका, उसे मिटानेका उपाय एक ही है। आज तो बहिष्कृत व्यक्तिके सामने मार्ग बहुत ही सरल है। लेकिन मान लें कि छोटी-छोटी जातियोंका आज जो वातावरण है उसमें किसी छोटी जातिसे बहिष्कृत व्यक्तिको वर्णमें भी स्थान नहीं बच रहता तो? तो भी चिन्ताकी क्या बात है? आज देशके प्रत्येक क्षेत्रमें ऐसे सुधारकोंकी आवश्यकता है, जिनमें एकाकी खड़े रहने की शक्ति हो।

लेकिन जो खरा व्यक्ति इस प्रकार एकाकी खड़े रहनेकी हिम्मत करता है वह क्रोध और द्वेष नहीं करता और सहनशील होता है। वह जालिमका भी तिरस्कार नहीं करता। वह उसका भी भला चाहता है और मौका मिलनेपर उसकी सेवा करता है। सेवाका धर्म कोई कभी न छोड़े। सेवा करानेका अधिकार तो हो ही कैसे सकता है? धर्म तो यह कहता है : "मैं तो सेवक हूँ, मुझे विधाताने अधिकार दिया ही नहीं।" जिसको कुछ प्राप्त ही नहीं हुआ वह क्या खो सकता है? बहिष्कृतको तो सेवा लेनेकी छोटीसे-छोटी इच्छाका भी त्याग कर देना चाहिए। जो ऐसा करते हैं उन्हें सेवा प्राप्त भी हो जाती है, ऐसा कछ विचित्र नियम है। लेकिन इससे कुछ मतलब नहीं कि सेवा प्राप्त हो जायेगी। इस खयालसे जो सेवा पानेकी इच्छाका दावा करता है, वह चोर है। उसे अवश्य ही निराश होना पड़ेगा।

अन्त्यजोंके सेवकगणो! तुम्हें जो कष्ट पहुँचाये तुम रजकणके समान नम्र रहकर उन्हें कष्ट पहुँचाने दो। पृथ्वीको हम सदा पैरोंके नीचे दबाते रहते हैं, कुचलते रहते है फिर भी वह हमें अभय प्रदान करती है। इसीलिए हम उसे माता कहते है, और रोज सुबह उठकर उसका स्तवन करते हैं।

समुद्र जिसका वसन है, पर्वत जिसका स्तन-मण्डल, विष्णु-जैसे रक्षा करनेवाले जिसके पति हैं, उसे कोटि-कोटि नमस्कार हों। हे माता! हमारा पादस्पर्श क्षमा करो।