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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

द्वारा साबित करना चाहते हैं। यद्यपि वे पहले भी कमोबेश नियमित रूपसे ही चरखा चलाते रहे है, फिर भी अब वे यह काम यथासम्भव अधिक नियमित ढंगसे करनेका आग्रह रखेंगे और अपने हिस्सेका सूत मुझे हर महीने भेजा करेंगे। उन्होंने इस वर्षके आखिरतक प्रथम श्रेणीके कमसे-कम ३,००० मुसलमान सदस्य बनानेका संकल्प किया है। मैंने मौलाना साहबसे कहा है कि यदि वे इस सालके आखिरतक प्रथम श्रेणीके ३,००० सदस्य बना लेंगे तो मुझे पूर्ण सन्तोष हो जायेगा। किन्तु साथ ही मैंने उनसे यह भी कहा है कि ऐसे ३,००० मुसलमान सदस्य बनाने में, जिनका पेशा कातना न हो, लेकिन जो नियमपूर्वक कातें और हर महीने अपना सूत भेज दें, उनको बहुत अधिक जोर लगाना पड़ेगा। अभी तो स्थिति यह है कि सारे भारतमें भी कांग्रेसकी सदस्य सूची में ऐसी ३,००० स्त्रियों और पुरुषों के नाम नहीं है, जो अपने हिस्सेका २,००० गज सूत समयसे देते आये हों। यह बात दुःखद तो बहुत है, लेकिन सत्य भी है। इसमें सन्देह नहीं कि सूतकी मात्रा आधी कर देनेसे कुछ फर्क आ जायेगा। लेकिन अनुभव तो यह बताता है कि लोग तनिकसे उकसानेपर और उत्साहमें आकर कोई काम करने के लिए तैयार तो बहुत खुशी-खुशी हो जाते है, लेकिन ऐसे लोगोंकी संख्या ज्यादा नहीं होती, जो दिन-प्रतिदिन उस कामको बराबर नियमित रूपसे करते रहें। फिर भी मेरा निश्चित मत है कि जबतक हमें ऐसे लोग नहीं मिलते, जो राष्ट्र की खातिर अंगीकार किये गये अपने दीर्घकालीन कर्तव्योंका पालन करना अपने लिए प्रतिष्ठाका सवाल बना लें, तबतक हम कोई सच्ची प्रगति नहीं कर सकते। इसलिए मैं मौलाना साहबकी पूरी सफलताकी कामना करता हूँ।

हिन्दुओंका अड्डा?

मौलाना साहबने मुझे बताया कि उनके एक मुसलमान मित्रने उन्हें इस बात की चेतावनी दी है कि खादी-कार्य जिस प्रकार खादी निकायके अधीन सिर्फ हिन्दुओंका बनकर रह गया था, उसी प्रकार चरखा संघके अधीन भी यह कार्य सिर्फ हिन्दुओंके हाथकी बात बनकर रह जायेगा। मौलाना साहब तो पहले ही उस मुसलमान मित्रके इस कयनको निराधार बताते हुए उससे कह चुके हैं कि उन्हें मालूम है कि श्री बैकरने मुसलमान कार्यकर्त्ताओंकी किस तरह जी-जानसे तलाश की थी। अब मैं अपना निजी अनुभव भी बता देता हूँ। मैं जहाँ-कहीं गया हूँ, मैने खादी-संगठनके संचालकोंसे यही प्रश्न किया है कि उनके साथ कुछ मुसलमान कार्यकर्त्ता भी है या नहीं। इसके जवाबमें सभीने एक स्वरसे शिकायत की है कि खादी-कार्यके लिए मुसलमान कार्यकर्त्ताओंका मिलना कठिन होता है। खादी-प्रतिष्ठानमें कुछ मुसलमान अवश्य है, पर वे अपेक्षाकृत साधारण वर्गके लोग है। अभय-आश्रममें भी एक दो मुसलमान सज्जन हैं। पर मुझे ऐसे ज्यादा उदाहरण मालूम नहीं है। बात यह है कि खादी-कार्य अभी अधिक लोकप्रिय नहीं हआ है। इसमें काम करनेसे ज्यादा पैसा नहीं मिल सकता। कुछ समय पहले मैंने इसके आँकड़ोंकी छानबीन की तो मुझे मालूम हुआ कि इसमें १५० रु॰ मासिकसे अधिक वेतन कहीं नहीं दिया जाता। यह १५० रु॰ भी बड़े योग्य संगठनकर्त्ताको दिया जाता है। ज्यादातर श्रेष्ठ खादी-कार्यकर्त्ता तो सर्वत्र स्वयंसेवी