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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उठेगा, उसका उद्धार होगा। अब कोई कह सकता है कि यह भी तो विचारोंकी दुनियासे सम्बन्धित एक आदर्श स्थिति ही है। ऐसा कहना ठीक ही है, जिन अवधारणाओंके आधारपर मैंने अपनी दलीलें खड़ी की है, वे यूक्लिडकी परिभाषाओंके समान ही सच्ची है—यूक्लिडकी परिभाषाएँ महज इसलिए कुछ कम सत्य नहीं हो जाती कि व्यवहारतः हम उसके द्वारा परिभाषित रेखा भी नहीं खींच सकते। लेकिन, किसी ज्यामिति-शास्त्रीके लिए भी यूक्लिडकी परिभाषाओंको ध्यानमें रखे बिना आगे बढ़ना असम्भव हो जाता है। इसी प्रकार हम भी, यद्यपि पत्र लिखनेवाले जर्मनभाई, उनके मित्र, सहयोगी तथा स्वयं मैं भी, उन बुनियादी अवधारणाओंकी उपेक्षा नहीं कर सकते, जिनके आधारपर सत्याग्रहके सिद्धान्तका यह महल खड़ा है।

अब एक ही कठिन प्रश्नका उत्तर देना शेष रह जाता है। पत्र-लेखकने बड़ी खूबीके साथ अंग्रेजोंके विश्वको ज्ञान और सभ्यताका पाठ पढ़ानेके अहंकारपूर्ण दावेकी तुलना विवाहित व्यक्तियोंके बीच सम्बधोंपर मेरे विचारोंसे कर दी है। लेकिन यह तुलना विचार करनेपर ठीक नहीं जान पड़ती। विवाह बन्धनमें तो एक-दूसरेसे सिर्फ पारस्परिक सहमतिसे ही मिलनेकी बात होती है। लेकिन निश्चय ही, संयमके लिए दूसरे पक्षकी सहमतिकी आवश्यकता नहीं है। अगर एक पक्ष संयमके तमाम बन्धन तोड़ दे तो विवाहित जीवन असह्य हो जायेगा और ऐसा होता भी रहता है। विवाह किसी दम्पतीके इस अधिकारकी पुष्टि करता है कि जब दोनोंकी इच्छा हो तो दोनोंका एक-दूसरेके साथ, किसी तीसरे व्यक्तिके साथ नहीं, समागम हो सकता है। लेकिन इससे किसी एक पक्षको इच्छा होनेपर दूसरे पक्षको समागमके लिए मजबूर करनेका अधिकार नहीं मिल जाता। जब एक पक्ष नैतिक अथवा किसी अन्य कारणसे दूसरेकी इच्छाका पालन न कर सकता हो, तब क्या किया जाये, यह एक अलग सवाल है। मेरी अपनी राय पूछे तो मैं कहूँगा कि अगर एकमात्र विकल्प तलाक ही हो और अगर यह मान लिया जाये कि मैं सिर्फ नैतिक कारणोंसे ही ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहता हूँ तो अपने इस नैतिक उत्थानके मार्गमें बाधा पड़ने देनेके बजाय इस विकल्पको में ज्यादा खुशीसे स्वीकार कर लूँगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ८-१०-१९२५