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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खादी बहुत अच्छी होती है। और वे सिर्फ बहुत मोटी किस्मकी ही खादी तैयार करते हों, सो भी नहीं है। निमित खादीमें से कुछ तो बहुत महीन और अच्छी होती है। वे १० नम्बरका चालीस तोला सूत कातने के लिए चार आने देते हैं। और ४५ इंच चौड़ा थान बुनने के लिए प्रति गज २॥ आना देते है। कुल मिलाकर २८ कार्यकर्ता हैं। इन केन्द्रों की व्यवस्थामें औसतन प्रति कार्यकर्ता प्रति मास २५ रुपयका खर्च पड़ता है। इसमें भोजन और यात्राका खर्च भी शामिल है। ये केन्द्र घाटेपर नहीं चल रहे हैं। अपने मालकी बिक्रीकी व्यवस्था ये खुद ही करते हैं। उनके यहाँ जो सूत आता है, उसकी किस्म देखने से पता चलता है कि हर महीने कुछ-न-कुछ प्रगति हो रही है। मैं उद्योग विभाग तथा आम तौरसे जनताको भी आमन्त्रित करता हूँ कि वे खुद ही आकर इन गाँवोंकी स्थितिका अध्ययन करें और देखें कि ऊपर दिये गये तथ्य सही है या नहीं। इन कार्यकर्ताओंको गाँवोंमें ७,००० चरखे और हाथ-कते सूतसे बुनाई करनेवाले २५० करघे चलवानेका श्रेय प्राप्त है।

बिहारकी स्थिति दूसरे प्रान्तोंसे भिन्न नहीं है। बंगाल, आन्ध्र, तमिलनाड और संयुक्त प्रान्तके कई हिस्सों में भी ऐसी ही स्थिति है। मैने इन प्रान्तोंका उल्लेख इसलिए किया है कि इनमें ऐसे लोगोंकी स्थितिका अध्ययन किया जा सकता है, जिन्होंने कताईका काम अपना लिया है। इस समय दूसरे प्रान्तोंसे भी अधिकांशमें यही वस्तु-स्थिति देखने को मिलेगी। उदाहरणके लिए, उड़ीसाको, जहाँके लोग किसी तरह गुजारेके लायक कमा लेते हैं, सिर्फ कुशल कार्यकर्त्ताओं और अच्छे संगठनका इन्तजार है। राजस्थानमें वैसे तो बहुतसे लखपति लोग है, लेकिन वहाँ भी कताईकी कला अभी जीवित है और आम जनता बहुत गरीब है। अगर सिर्फ राजा-महाराजा लोग इस आन्दोलनको हार्दिक सहयोग दें, अपने-अपने राज्यों में लोगोंको खादी पहनने के लिए बढ़ावा दें और खादीकी राह में जहाँ-कहीं कोई बाधा हो उसे दूर कर दें तो अकसर अकालका शिकार होते रहनेवाले इस प्रदेशको बिना कोई बड़ी पूंजी लगाये और बिना किसी आडम्बरके, गरीब जनताके लिए हर वर्ष लाखों रुपयेकी अतिरिक्त आय होने लगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ८–१०–१९२५