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५. नये आचार

देशबन्धुके देहावसानपर जो सभाएँ आदि हुई थीं, उनमें बहुत-सी जगहोंपर लोगोंने आम तौरपर सभाओंमें होनेवाली बातोंके अतिरिक्त कुछ ऐसी नई बातें भी की जो उन्हें वहाँ उपयुक्त मालूम हुई। बंगालमें कई स्थानोंपर कीर्तन हुए थे, कहींकहीं गरीबोंको भोजन कराया गया था, और कहीं-कहीं लोगोंने स्नानादि करके धार्मिक क्रियाएँ भी सम्पन्न की। काठियावाड़के चाड़िया नामक गाँवमें यह तिथि निम्न[१] प्रकार मनाई गई थी।

१. प्रभुसे प्रार्थना की गई कि दिवंगत आत्माको शान्ति मिले और भारतको उनके जैसे दूसरे देशबन्धु प्राप्त हों।
२. कुत्तों और गौओंको लड्डू खिलाये गये।
३. उस दिन चरस और हल नहीं चलाये गये।
४. ऐसा निश्चय किया गया कि हरएक किसान अगले सालके लिए अपने घरकी जरूरतके लायक अच्छी कपास जमा कर ले।

दूसरी कई जगहोंमें लोगोंने उपवास किया और सूत भी काता। ऐसी नवीनताएँ स्वागतके योग्य है। ऐसे प्रसंगोंको, हमें जो शुभ प्रवृत्तियाँ सूझें और जो दिवंगतको मान्य रही हों, उन्हें आगे बढानेका निमित्त बनाना, मत व्यक्तिके प्रति हमारे प्रेमकी सबसे अच्छी निशानी है।

चरस और हल नहीं चलाना जीव-दयाका द्योतक है। चौमासेको छोड़कर बाकी सब दिन हम बिना विचार किये चरस वगैरा प्रायः चलाते ही रहते हैं। इससे वास्तवमें लाभके बदले हानि ही होती है। जहाँ हर हफ्ते एक दिन विश्राम करने और नौकरों तथा जानवरों--दोनोंको विश्राम देनेका रिवाज है, वहाँ लोगोंने खोया नहीं पाया ही है। अतः, महापुरुषोंके देहावसान-जैसे अवसरोंपर चरस वगैराको बन्द रखकर नौकरों, पशुओं आदिको विश्राम देना, यह एक शुभारम्भ है।

झूठी दया

लेकिन कुत्तों और गायोंको लड्डू खिलाना झूठी दया है। हमें लड्डू अच्छा लगता है, इसीसे गाय और कुत्तको भी अच्छा लगेगा या उनके लिए लाभदायक होगा ऐसा माननेका कोई कारण नहीं। पशुओंका स्वाद बिगड़ा हुआ नहीं होता। जब मनुष्य-मनुष्यके स्वादमें भेद है तो पशुओंके और हमारे स्वादमें तो होगा ही। किसी अंग्रेजको लड्डू दें तो वह उसे फेंक देगा; हममें से भी बहुत-से लोगोंको मीठी चीजें पसन्द नहीं आतीं। भारतमें ही मद्रासमें लोग रोटी और पंजाबमें भात नहीं खाते। तब फिर गाय और कुत्तेको लड्डू खिलानेका क्या मतलब है? गायें और कुत्ते

  1. सम्भवतः १ जुलाई, १९२५; देशबन्धु दासके श्राद्धकी तिथि।