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कठिन है। मैं अपने-आपको एक तुच्छ सेवकका जीवन व्यतीत करनेवाला गृहस्थ-मात्र मानता हूँ। अपने साथी कार्यकर्ताओंके साथ मैं भी उन भाइयोंकी दानशीलताके सहारे गजर करता है, जो साबरमतीके सत्याग्रहाश्रमका, जिसके संस्थापकोंमें एक मैं भी हूँ, खर्च चलाते हैं। अगर आराम और सुख मनकी चीज है तो मैं जो जीवन जी रहा हूँ वह सचमुच बहुत आराम और सुखका जीवन है। निजी उपयोगके लिए धन जमा करनेकी चिन्ता किये बिना ही मुझे अपनी आवश्यकताके अनुसार सब-कुछ मिल जाता है। हमेशा कार्यमें लगे रहनेके कारण मेरा जीवन आनन्दमय रहता है। मैं एक पक्षीके समान स्वतन्त्र हूँ, क्योंकि मुझे इस बातकी चिन्ता नहीं रहती कि कल मेरा क्या होगा। सचमुच मेरे वर्तमान जीवनको देखकर तो यह भी कहा जा सकता है कि मैं सुख-चैनका जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। अभी पिछले ही दिनोंकी बात है, मैं जिस ट्रेनसे सफर कर रहा था, वह जब गया स्टेशनपर खड़ी हई तो एक अंग्रेज महिलाने पास आकर मुझसे पूछा "मैं तो समझती थी कि आप भीड़-भाड़से भरे तीसरे दर्जेमें सफर कर रहे होंगे, पर मैं देखती हैं कि आप तो कई साथियोंसे घिरे हए आरामसे दूसरे दर्जेमें सफर कर रहे हैं। यह कैसी बात है? आपने तो कहा है कि मैं गरीबोंके समान रहना चाहता हूँ। क्या आप यह समझते हैं कि गरीब लोग दूसरे दर्जेमें आरामसे यात्रा करनेके लिए इतना पैसा खर्च कर सकते हैं? क्या यहाँ आपकी कथनी और करनीमें भेद नहीं है?" मैंने सीधे अपना अपराध कबूल कर लिया और उसे यह बताना भी जरूरी नहीं समझा कि मेरा शरीर इतना जीर्ण हो गया है कि अब लगातार तीसरे दर्जेको यात्राकी थकावटको मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि इस त्रुटिके लिए शारीरिक कमजोरी कोई बहाना नहीं हो सकती। मैं यह बात जानता हूँ और मुझे उसका दुःख है कि लाखों स्त्री-पुरुष शरीरसे मुझसे भी अधिक कमजोर है, पर चूंकि उनके कोई ऐसे मित्र नहीं है जो उन्हें दूसरे दर्जेका किराया दे सकें इसलिए उन्हें तीसरे दर्जेमें ही यात्रा करनी पड़ती है। निःसन्देह मेरा यह आचरण मेरे इस कथनसे असंगत था कि मैं गरीबोंके साथ एकरूप होना चाहता हूँ। ऐसा ही दारुण है हमारा जीवन! पर फिर भी मैं अपने आनन्दको छोड़ना नहीं चाहता। मेरी कथनी और करनी में उस महिलाने जो असंगति देखी उसके बावजूद अगर मै हिम्मत नहीं हारता हूँ, तो यह सोचकर कि मैं निरन्तर सच्चे मनसे अपनी शारीरिक आवश्यकताओंको कम करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ।

चरखेका असर

एक सज्जन, जो रियासतमें नौकर होने के कारण कांग्रेसके सदस्य तो नहीं है परन्तु जिन्हें चरखके सन्देशमें पूरा विश्वास है और इसलिए जो रोज चरखा चलाते है, लिखते हैं :

पिछले सात महीनोंमें मैंने लगभग १५० घंटे सूत काता है। उस थोड़ेसे अनुभवके आधारपर मुझे लगता है कि जबतक हम पुरुष खुद चरखा कातकर बढ़िया बटदार, बुनने लायक सूत कातनेका उदाहरण अपनी स्त्रियोंके सामने पेश न करेंगे तबतक चरखेका जीर्णोद्धार असम्भव है। मुझे यह भी लगता