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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इससे प्रकट होता है कि वाइकोमके सत्याग्रहियोंने अपने कामकी भावनाको समझ लिया है। इसमें न तो धूम-धड़ाका है, न शोरगुल। बल्कि अपने शुद्ध आचरणके द्वारा विजय प्राप्त करनेका सीधा सरल निश्चय है। सत्याग्रहीको अपने एक-एक मिनटका अच्छा हिसाब देने में समर्थ होना चाहिए। वाइकोमके सत्याग्रही यही कर रहे हैं। कांग्रेसके लिए तथा दादाभाई जन्म-शताब्दीके लिए अपनी छटीके दिन अलगसे समय निकालकर सूत कातनेकी उनकी प्रामाणिकता पाठकोंके ध्यानमें आये बिना न रहेगी। अखिल भारतीय देशबन्धु स्मारकके लिए सूत कातनेका विचार भी उनके अन्य कार्योके अनुरूप ही है। मेरे सामने यह जो पत्र है इसमें रविवारको छोड़कर पिछले सप्ताहभरके सूतका हर स्वयंसेवकका हिसाब लिखा हुआ है। अलग-अलग सत्याग्रहियों द्वारा काती गई सूत-राशिमें जिसकी सूत-राशि सबसे ज्यादा है उसने १७ अंकका ६८९५ गज सूत काता है। सबसे कम कातनेवालेने १८ नम्बरका २,९३६ गज सूत काता है। इस कमीका कारण यह बताया गया है कि वह तीन दिनतक छुट्टीपर गया था। उस सप्ताहका औसत सूत फी आदमी प्रति दिन ८६६.६ गज था। २६ अगस्तको पूरे होनेवाले सप्ताहके अंक भी मेरे सामने हैं। एक व्यक्ति द्वारा अधिकसे-अधिक ७,७०० गज सूत काता गया है, और कमसे-कम २,०००। दूसरे व्यक्तिने सप्ताहमें दो ही दिन कताई की थी। पाठक शायद पूछेंगे कि चरखा और अस्पृश्यता-निवारणके बीच क्या सम्बन्ध है? यों ऊपर-ऊपर देखनेसे कुछ भी नहीं है। किन्तु वास्तवमें बहुत है। सत्याग्रह तो सत्याग्रहकी भावनामें ही है : इस भावनासे विच्छिन्न किसी बाहरी कार्यको सत्याग्रह नहीं कह सकते। कताईके अन्दर जो सत्याग्रहीकी भावना यहाँपर है वह आगे चलकर अपना असर डाले बिना न रहेगी। क्योंकि इन नवयुवकोंके लिए कताई एक ऐसा राष्ट्रीय यज्ञ है, जिससे कि अनजाने ही सच्चा विनय, धैर्य और निश्चय—ये गुण प्रकट होते है और ये गुण स्वच्छ सफलताके लिए अनिवार्य है।

अनिवार्य फौजी शिक्षा

प्रयागके एक स्नातक लिखते है :

मैं प्रयाग विश्वविद्यालयका एक पंजीकृत स्नातक हूँ। प्रयाग विश्वविद्यालय कोर्टको सदस्यताके उम्मीदवारको वोट देनेका हक मुझे हासिल है।
मैंने विश्वविद्यालयोंमें फौजी शिक्षाको अनिवार्य करने के विचारका विरोध किया है। इसपर आपत्ति खड़ी की गई है। इस प्रश्नपर मैं 'यंग इंडिया' के द्वारा आपको सम्मति जानना चाहता हूँ। मेरे विचार संक्षेपमें इस प्रकार हैं :
मैं इस बातको मानता हूँ कि स्वराज्य सरकारमें युवकोंसे यह अपेक्षित होगा कि वे फौजकी नौकरी अपनायें और हमें इस प्रवृत्तिको प्रोत्साहन देना होगा। पर मैं समझता हूँ कि विदेशी सरकारके अधीन इस बातका कोई आश्वासन नहीं है कि विश्वविद्यालयके इन फौजी दस्तोंका भारतीय राष्ट्र के खिलाफ उसी प्रकार उपयोग नहीं किया जायेगा, जैसा कि इससे पूर्व भारतीय फौजोंका किया गया है। फिर, यदि हमारे नवयुवक फौजी तालीमके लिए मजबूर किये