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सर्वमान्य लिपि

सबके लिए सर्वसामान्य लिपिकी बातको व्यावहारिक आदर्श ही मानना चाहिए। उदाहरणके लिए, किसी गुजरातीके लिए गुजराती लिपिसे चिपटे रहने में कोई सार नहीं है, जिस प्रकार भारतके प्रति भक्ति उसी हदतक अच्छी है जिस हदतक वह सारी दुनियाके प्रति अनुराग पैदा करने में सहायक है, उसी प्रकार प्रान्त-भक्ति भी उसी सीमातक श्रेयस्कर है जिस सीमातक वह भारत-भक्तिकी बृहत्तर धाराको पुष्ट करने में सहायक है। लेकिन जो प्रान्त-भक्ति ऐसा आग्रह करके चले कि "भारत कुछ नहीं है, गुजरात ही सब कुछ है", वह भक्ति नहीं, दुष्टता है। उदाहरणके रूपमें मैं गुजरातका ही उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि एक तो उसकी लिपि देवनागरीसे बहुत दूर नहीं है और दूसरे में स्वयं एक गुजराती हूँ। गुजरातमें जिन लोगोंने प्राथमिक शिक्षाके सिद्धान्त निर्धारित किये, उन्होंने सौभाग्यसे, देवनागरी लिपिको अनिवार्य बनानेका फैसला किया। इसलिए, किसी भी स्कूलमें पढ़कर निकले हुए सभी गुजराती बालक और बालिकाएँ गुजराती और देवनागरी दोनों लिपियाँ जानते हैं। अगर समितिने सिर्फ देवनागरी लिपिके पक्षमें ही निर्णय किया होता तो और भी अच्छा होता। इसमें सन्देह नहीं कि शोध-कार्य करनेवाले लोगोंको पुरानी पाण्डुलिपि पढ़नेके लिए तब भी गुजराती लिपि सीखनी पड़ती, लेकिन अगर बच्चोंको दो के बजाय एक ही लिपि सीखनी पड़े तो उनका बहुत सारा श्रम बच जाये; उसे वे किसी अधिक उपयोगी काममें लगा सकते हैं। जिस समितिने महाराष्ट्र के लिए शिक्षाकी योजना बनाई, उसमें और अधिक सूझ-बूझ और जागरूकता थी। उसने सिर्फ देवनागरी लिपिकी ही आवश्यकता बताई। नतीजा यह है कि जहाँतक सिर्फ पढ़नेका सम्बन्ध है, कोई मराठी-भाषी जितनी अच्छी तरह तुकारामकी रचनाएँ पढ़ सकता है उतनी ही अच्छी तरह तुलसी-साहित्य भी पढ़ सकता है, और इसी प्रकार गुजराती और हिन्दुस्तानी दोनों ही तुकारामको उतनी ही अच्छी तरह पढ़ सकते हैं। दूसरी ओर बंगालकी समितिने इससे भिन्न निर्णय किया, और उसका जो परिणाम हुआ है, वह हम सब जानते हैं और हममें से बहुत-से लोग उसको लेकर दुःखी भी होते हैं। इसका फल यह हुआ है कि सबसे समृद्ध भारतीय भाषाकी निधियोंतक लोगोंकी पहुँच, मानो योजनापूर्वक, अत्यन्त कठिन बना दी गई है। मैं समझता हूँ कि यह बात सिद्ध करनेकी कोई जरूरत नहीं है कि देवनागरी ही सर्वसामान्य लिपि होनी चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इस लिपिको भारतके सबसे अधिक लोग जानते हैं।

ये विचार मेरे मनमें इसलिए उठ रहे है कि जब मैं कटक गया हुआ था, उस समय वहाँ मुझसे एक व्यावहारिक मसला हल करनेको कहा गया। बिहारके हिन्दी भाषी लोगों और उड़ीसाके उड़िया-भाषी लोगोंके बीच एक आदिवासी जाति रहती है। सवाल यह था कि उनके बच्चों को शिक्षा किस भाषामें दी जाये। उन्हें उड़ियाके माध्यमसे पढ़ाया जाये या हिन्दी के माध्यमसे? या उन्हें उन्हींकी बोली में शिक्षा दी जाये? और अगर ऐसा ही किया जाये तो उसकी लिपि देवनागरी हो या कोई नई लिपि हो? पहले तो उत्कलके भाइयोंके मन में यह विचार था कि उन्हें उड़िया लोगोंके बीच ही खपा लिया जाये। बिहारी लोग उन्हें बिहार में ही मिला लेने को कहते, और