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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह है कि आदर्श सरकार कमसे-कम शासन करती है। जो जनताके करनेके लिए कुछ छोड़े ही नहीं, वह स्वराज्य नहीं है। वह तो ऐसा राज्य है, जिसमें प्रजाको नासमझ बच्चा समझकर उसके हर कार्य का नियमन किया जाता है। हमारी वर्तमान अवस्था ऐसी ही है। स्पष्ट है कि पत्र-लेखक महोदय अभीतक उस अवस्थासे ऊपर नहीं उठ पाये है। लेकिन अगर हमें स्वराज्य प्राप्त करना है तो हममें से बहुत सारे लोगोंको जबरन थोपी गई इस नाबालिगीकी स्थितिसे ऊपर उठकर अपने आपको बालिग मानना ही होगा। जहाँ सशस्त्र सत्ता प्रबल रूपसे हमारे विरुद्ध खड़ी न हो, कमसेकम उन क्षेत्रोंमें तो हमें अपने ऊपर आप ही शासन करना चाहिए। तीन-सूत्री कार्यक्रम स्वशासनकी हमारी क्षमताकी कसौटी है। अगर हम अपनी तमाम कमजोरियोंका दोष वर्तमान सरकारके मत्थे ही मढ़ेंगे तो हम इनसे कभी भी छुटकारा नहीं पा सकेंगे।

मैंने बेलगाँवमें एक बात कही थी। पत्र-लेखकने मुझे उसकी याद भी दिलाई है। मैंने कहा था कि अगर काफी प्रगति नहीं होती तो शायद इस वर्षके अन्तमें मैं कोई ऐसा रास्ता निकालूँगा जिससे हम अपना अन्तिम निर्णय कर सकें और "मृत्यु या स्वराज्य" का नारा बुलन्द कर सकें। स्पष्ट ही वे इसका मतलब कोई ऐसी असाधारण उथल-पुथल मान बैठे हैं, जिसमें हिंसा और अहिंसाका कोई भेद ही नहीं रह जायेगा। ऐसी उथल-पुथलका परिणाम निश्चय ही स्वराज्य नहीं, बल्कि मनमानी करने की छूट लेना होगा। मनमानीका मतलब है अराजकता, और यद्यपि अराजकता गुलामीसे या ऐसी स्थितिसे जिसमें हमें अपने 'स्व' का दमन करना पड़े हर हालतमें अच्छी ही है, फिर भी जानबूझकर ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में मेरा हाथ कभी नहीं होगा; इतना ही नहीं, ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न करनेके लिए तो मैं स्वभावसे ही अक्षम हूँ। मैं "मृत्यु या स्वराज्य" का जो भी रास्ता बताऊँगा वह निश्चय ही अव्यवस्था और अराजकतासे बच कर चलनेका ही रास्ता होगा। इसलिए मैं जिस स्वराज्यकी कल्पना करता हूँ वह दूसरोंकी हत्या और रक्तपातका परिणाम नहीं, बल्कि अनवरत आत्म-बलिदानके स्वेच्छा-प्रेरित कार्यका ही परिणाम होगा। वह रक्तपात करके अधिकारोंको बलात् छीन लेनेका परिणाम नहीं होगा, वह ता ठाक ढगसे और सच्चे अथाम कत्तंव्यके पालनका स्वाभाविक सुफल होगा। इसलिए ऐसे स्वराज्यको पानेके प्रयत्नमें नीरोके ढंगका नहीं, बल्कि चैतन्य महाप्रभुके ढंगका पर्याप्त रस भी मिलेगा। अभी पत्र-लेखककी तरह मैं भी यह मानता हूँ कि उस समय कोई दैवी मार्ग-दर्शन ही प्राप्त होगा। मैं उस संकेतकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह संकेत तब भी मिल सकता है और अक्सर तभी मिलता है जब क्षितिजपर सबसे अधिक कालिमा छाई रहती है। लेकिन, मैं इतना जानता हूँ कि वह समय तभी आयेगा जब देशमें ऐसे युवकों और युवतियोंका एक दल तैयार हो जायेगा, जिन्हें और किसी चीजमें नहीं, बल्कि केवल श्रम और देश-हितके काममें पूरा रस मिलेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २७–८–१९२५