पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/१४५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११७
टिप्पणियाँ


मैं लकीरका फकीर नहीं हूँ। इसलिए संसारके विभिन्न धर्म-ग्रन्थोंकी भावनाको समझनेका प्रयत्न करता हूँ। मैं उन्हें सत्य और अहिंसाकी कसौटीपर कसता हूँ; वह कसौटी स्वयं इन ग्रन्थों में ही निर्धारित है। जो-कुछ उस कसौटीपर खरा नहीं उतरता उसे में अस्वीकार कर देता हूँ और जो खरा उतरता है उसे ग्रहण कर लेता हूँ। राम द्वारा वेदोंको पढ़ने का साहस करनेके कारण एक शूद्रको दण्ड दिये जानेके आख्यानको मैं एक क्षेपक मानकर अस्वीकार करता हूँ। कुछ भी हो, मैं जिस रामकी उपासना करता हूँ, वे मेरी कल्पनाके पूर्ण पुरुष है। मैं उस ऐतिहासिक रामकी उपासना नहीं करता, जिसके जीवन-विषयक तथ्य. ऐतिहासिक अन्वेषणों और अनुसन्धानोंकी प्रगतिके साथ-साथ बदलते रह सकते हैं। तुलसीदासका ऐतिहासिक रामसे कोई मतलब नहीं था। इतिहासकी कसौटीपर कसनेसे उनकी रामायण रहीके ढेरपर फेंक देने लायक रह जायेगी। लेकिन आध्यात्मिक अनुभूतिकी झाँकियाँ देनेवाली कृतिके रूपमें उनकी पुस्तक अद्वितीय है, कमसे-कम मेरे लिए तो वह एसी ही है। किन्तु तब भी तुलसीदासकी 'रामायण' के नामसे प्रकाशित होनेवाले अनेकानेक संस्करणों में मिलनेवाले हरएक शब्दको मैं बिलकुल ठीक नहीं मानता। मैं तो पुस्तकमें जो भावना व्याप्त है, उसपर मन्त्र-मुग्ध हूँ। शूद्रोंके वेदाध्ययनपर लगाये गये प्रतिबन्धको खुद में स्वीकार नहीं कर सकता। मैं तो मानता हूँ कि अभी जबतक हम गुलाम है, तबतक हम सभी मुख्यतः शूद्र ही हैं। ज्ञानपर किसी भी श्रेणी या वर्गका विशेषाधिकार नहीं हो सकता। हाँ मैं यह समझ सकता हूँ कि जिस प्रकार पहलेसे तैयारी किये बिना कोई भी व्यक्ति ऊँचाईपर, जहाँ हवाका घनत्व बहुत कम है, साँस नहीं ले सकता; या जिन्होंने सामान्य गणितकी शिक्षा न ली हो, वे रेखागणित या बीजगणित नहीं समझ सकते, उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्रमें भी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त किये बिना लोगोंके लिए उच्चतर या सूक्ष्मतर सत्योंको ग्रहण करना असम्भव है। और अन्तमें यह कहूँगा कि मैं कुछ स्वस्थ परम्पराओंमें विश्वास रखता हूँ। गायत्रीके जापके बारेमें भी एक परम्परा है—वह यह कि निर्धारित रीतिसे स्नानादि कृत्य करनेके बाद निश्चित समयपर ही गायत्रीका जाप करना चाहिए। चूंकि मैं उन परम्पराओंमें विश्वास करता हूँ और चूंकि मैं सदैव उनका पालन नहीं कर पाता इसलिए मैं वर्षोसे परवर्ती सन्तोंका अनुसरण करता रहा हूँ और मैं 'भागवत' के द्वादश-मन्त्रके जापसे अथवा तुलसीदासकी सरलतर पद्धतिके अनुसरणसे और 'गीता' तथा अन्य पुस्तकोंके कुछ चुने हुए श्लोकों और भाषाके कुछ भजनोंके पाठसे ही सन्तोष करता आया हूँ। ये मेरे दैनिक आध्यात्मिक आहार हैं। ये ही मेरी 'गीता' है। मुझे जिस शान्ति और आत्मतोषकी प्रतिदिन आवश्यकता होती है, वह सब इनसे पूरा-पूरा मिल जाता है।

लोहानी कहाँ है?

वही सज्जन लिखते हैं :

यह है कहाँ? लोहानी कहाँ है? उत्तरमें अब भी सिर्फ प्रतिध्वनि ही सुनाई देतो है—कहाँ है? (कृपया ३०–४–२५ के 'यंग इंडिया' का पृष्ठ १५० देखिए)[१]

  1. देखिए, खण्ड २६, पृष्ठ ५५९।