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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उन्होंने भारतीय ग्रामीण कारीगरोंकी कलाकृत्तियोंकी भी झाँकी दी है। उन दिनों ग्रामीण लोग उनके लिए जो-कुछ सीखना जरूरी होता था, अपने माँ-बापसे ही वह सब-कुछ सीख लेते थे। लोगों से अपने दैनिक सम्पर्कमें उन्हें व्यक्तित्वके महत्त्व और उसकी सम्भावनाओं को जाननेका अवसर मिलता रहता था। उनकी दृष्टिमें गाँवका मुखिया विशिष्ट व्यक्तित्व-सम्पन्न व्यक्ति होता था। वह आजकलके पाखण्डियोंकी तरह नहीं था। वह लोगोंका सेवक होता था, जिसके पास लोग अपनी कठिनाईकी घड़ियों में जा सकते थे। उसे गाँवका एक-एक बच्चा जानता और प्यार करता था। उसे कोई भी प्रलोभन सत्य और कर्त्तव्यसे डिगा नहीं सकता था। वह सचमुच सज्जन पुरुष होता था। लेकिन आज तो ऐसे व्यक्ति दुर्लभ ही हैं। वक्ताने एक उसाँस भरकर कहा :

इस देश में ऐसा क्या हो गया है कि अब ये सभी अच्छी चीजें देखनेको नहीं मिलतीं। कुछ सदी पहलेके उन आत्म-निर्भर गाँवोंके बदले हम ऐसे गाँव देख रहे हैं, जो अपनी बुनियादी आवश्यकताओंतक की पूर्तिके लिए लंकाशायर और जापानपर निर्भर है।

सारा ग्राम-जीवन बिखर गया है। लाखों लोग मलेरिया, हुक-वर्म (अंकुश कृमि) तथा दूसरी बीमारियोंसे मर रहे हैं। ये बीमारियाँ गन्दगी, घोर गरीबी, सुस्ती और बेकारीके परिणाम हैं। ग्राम्य-जीवन इस तरह अस्तव्यस्त कैसे हुआ, ऐसा पतन क्योंकर हुआ? कोई भी ईस्ट इंडिया कम्पनीके इतिहासके पृष्ठ पलटकर स्वयं देख सकता है कि कैसी निर्ममतासे और मुख्यतया अप्रामाणिक ढंगसे ग्राम्य-जीवनको व्यवस्थाको तोड़ा गया। ईस्ट इंडिया कम्पनीकी सेवामें लगे लोग इस बातके स्थायी प्रमाण छोड़ गये हैं कि उन दिनों किस प्रकार अन्याय और भ्रष्टाचारका बोलबाला था और कितनी निर्ममतासे भारतको दस्तकारीको नष्ट किया गया। आज एक ही अकाल या बाढ़के कारण ग्रामीण सर्वथा असहाय-विपन्न हो जाते हैं। लेकिन बाढ़ग्रस्त गाँवको इस तरह असहाय क्यों हो जाना चाहिए कि उसे दानपर जोना पड़े? मैने दक्षिण आफ्रिका भी देखा है कि बाढ़का परिणाम क्या होता है। लेकिन वहाँ किसो प्रकारको सहायताकी जरूरत नहीं होती। उन्हें राज्यकी ओरसे नहीं खिलाना पड़ता है। उनके पास गह-उद्योग हैं। वे काम करते हैं। वे दिन में सहारेके लिए बहत-कुछ बचाकर भी रखते हैं। यहाँ खेतीके अतिरिक्त और कोई धन्धा नहीं है, कोई काम नहीं, कोई बचत नहीं। सालमें चार महीने बेकार रहना पड़ता है और बंगालके गाँवोंमें तो छः महीनेतक भी। ग्राम-संगठन कर्ताओंके सामने यह समस्या है और उसका समाधान करने में व्यक्तित्वको शक्तिका परिचय दिया जा सकता है। अन्तमें अपने कथनका सार प्रस्तुत करते हुए वक्ताने कहा :

आप गाँवोंमें जाइए और अपने चरित्रकी अभिव्यक्ति सेवा और दयाके किसी स्नेहसिक्त कार्यके द्वारा कीजिए। लोग आपके उस कामको सहज ही समझेंगे और अनुकूल प्रतिक्रिया दिखायेंगे। जिस नौजवानमें वास्तविक चरित्र हो, वह गाँवोंमें जाने