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मालिकोंमें से एक

कुछ दूसरे गरीब लोगोंको एक सज्जन कम कीमतपर या मुफ्त ही यह पत्र उपलब्ध कर दिया करते है। पत्र-लेखक अपना अंक सावधानीके साथ बचाकर रखें और खुद ही उसकी जिल्द बँधवा लें। शुद्ध गरीबीके सुन्दर लक्षणों में छोटीसे-छोटी वस्तुको भी सावधानीके साथ बचाकर रखनेका गुण भी शामिल है। और 'नवजीवन' की मितव्ययिता तो ऐसी है कि उसमें काम करनेवाले कुछ लोग अपनी गाँठसे खर्च करके काम करते हैं।

लेकिन, इस मालिकसे क्या कहा जाये? ये तो 'नवजीवन' को खरीदते हैं और उसे पढ़कर ही रह जाते है। कोई मालिकी पैसा कमानेका साधन बनती है तो कोई उसे गँवानेकी। कोई नैतिकताको पुष्ट करती है तो कोई उसका ह्रास। कोई हँसाती है तो कोई रुलाती है : कोई स्वराज्यकी राहपर प्रवत्त करती है तो कोई पर-राज्यकी ओर खींचती है। 'नवजीवन' की मालिकी पैसा नहीं देती, इतना तो स्पष्ट है। 'नवजीवन' की मालिकी ग्राहकका पैसा खर्च करती है, यह भी इतना ही स्पष्ट है। लेकिन, इसमें कोई विचित्रता है क्या? मै तो उसका बड़ेसे-बड़ा मालिक माना जाऊँगा न? मुझे दूसरे खातोंसे पैसा निकालकर 'नवजीवन' को लेख भेजने के लिए टिकट खरीदने दने पड़ते हैं। कभी-कभी तार भी भेजना पड़ता है। मैं ग्राहकोंको भरोसा दिलाता है कि उनका जितना खर्च होता होगा, उससे कहीं अधिक मेरा और ऐसा एक में ही नहीं हूँ। मेरे दूसरे साथी भी ऐसे ही हैं। और अगर मनुष्य जो न्याय अपने ऊपर लागू करता है वही दूसरोंपर भी करे तो क्या इतना काफी नहीं है ? ग्राहक तो वार्षिक चन्दा देकर ही छुटकारा पा जा सकते हैं, लेकिन अवैतनिक संचालक-मालिकके हालकी तो सोचिए। 'नवजीवन' खरीदनका मतलब है स्वराज्यके मार्गमें प्रवृत्त होना, 'नवजीवन' खरीदनेका मतलब है चरखेका स्तवन करना! 'नवजीवन' का ग्राहक होना तो सत्य और अहिंसाका सौदा है। दूसरी तरहके प्रलोभन देकर ग्राहक खोजनेकी मुझे कोई इच्छा नहीं है।

आप लिखते हैं कि 'नवजीवन' अर्थोपार्जनका साधन नहीं है। उसके पाठक अपनेको उसका मालिक ही समझें। लेकिन, यह तो आपका खयाल-भर है। इसे कार्य-रूप क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? यह पचास हजारकी बचत क्या अर्थोंपार्जन नहीं है? फिर भी, अगर उसका लाभ ग्राहकोंको न मिले तो फिर उनको मालिको कहाँ रही? अपने दूसरे खर्च में बहुत काट-छाँट करके भी जो लोग 'नवजीवन' मँगाते हैं, क्या उनके साथ यह अन्याय नहीं है?

मैं आज भी कहता हूँ कि 'नवजीवन' अर्थोपार्जनका साधन नहीं है। ५० हजार की बचतको अर्थोपार्जन तब माना जायेगा जब उसका उपयोग संचालक करें। 'नवजीवन' के ग्राहकोंकी संख्या आज ५,००० है, पहले ३०,००० थी। यदि फिर इसके उतने ही ग्राहक हो जायें तो भी मैं इसकी कीमत कम न करूँ, बल्कि प्रति ग्राहक जो एक पैसे की बचत हो उसे फिर सार्वजनिक कार्यों में लगा दूँ और ऐसा मानूँ कि इसका लाभ 'नवजीवन' के ग्राहक-मालिकको ही मिला।