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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो यह और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि वे उनकी स्मृतिको बहुत पुनीत मानते है; और उनका ऐसा मानना सर्वथा उचित है। :[अंग्रेजीसे]

इंग्लिशमैन, २२–८–१९२५
 

५६. टिप्पणियाँ
कच्छवासियोंसे

मैंने कच्छ जानेका वचन दिया है। इसलिए कच्छवासी भाई पूछ रहे हैं कि मैं वहाँ कब जाऊँगा और उनसे क्या आशाएँ रखता हूँ। जबसे मैंने वचन दिया है, तभीसे वहाँ जानेके लिए मैं अधीर हो रहा हूँ। इसका एक कारण तो यह है कि मैंने अबतक कच्छ देखा ही नहीं है; जबकि उसे देखनेकी इच्छा बराबर रही है। दूसरा कारण यह है कि दिया हुआ वचन कर्तव्य-रूप होता है—जैसे बने उसे जल्दी पूरा कर देना चाहिए। लेकिन, अभी मुझे नहीं लगता कि नवम्बरमें, बल्कि जनवरीसे पहले मैं वहाँ जा सकूँगा।[१] यह आशंका मैंने वचन देते समय भी व्यक्त कर दी थी। सितम्बर-अक्तूबरमें बिहार जाना है। उसके बाद दक्षिणके प्रान्त रह जाते है और कुछ दूसरे भी। उनमें से जहाँ-जहाँ जा सकूँगा, जाऊँगा। अगर वहाँ जाना स्थगित रहा तो नवम्बर अथवा दिसम्बरमें कच्छ जाऊँगा। ऐसा न हआ तो अन्तम जनवरी तो है ही।

अब में अपनी अपेक्षाओंकी बात कहता हूँ।

अखिल भारतीय देशबन्धु चरखा स्मारकके लिए तो पैसा उगाहना है ही। कच्छसे मैं उसमें काफी कुछ देनेकी आशा रखूँगा।

यह आशा भी रखूँगा कि वहाँ कोई भी खादीके अलावा और कोई कपड़ा पहने नजर न आये।

अन्त्यजोंके प्रति तिरस्कार-भाव मनसे बिलकुल दूर हो जाये, यह भी चाहूँगा।

स्वच्छ अन्त्यज-शालाएँ देखनेकी आशा रखूँगा।

हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच मेल-जोलकी आशा रखूँगा।

हिन्दुओंके बीच घर-घर राम-नाम सुननेकी आशा रखूँगा।

राजा-प्रजाके बीच प्रेमभाव और प्रजाको सुखी देखनेकी आशा रखूँगा।

बहनोंको शुद्ध खादी पहने और सीता-जैसे आत्मबलसे युक्त देखनेकी आशा करूँगा।

पंचायतके जरिये

खादी-मण्डलका जो पैसा कांग्रेसके सभ्य-सदस्य ही खा जाते हैं, उसके सम्बन्धमें अदालतमें जानेकी मेरी सलाहको पढ़कर एक भाईने पंचके जरिये इन्साफ करने और पंचायतकी प्रवृत्तिको लोगोंमें फैलाने की सलाह दी है। मुझे तो पंचायतकी प्रवृत्ति अत्यन्त

  1. गांधीजी कच्छ २२ अक्टूबर १९२५ को गये थे तथा वहाँ १३ दिन रहें।