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टिप्पणियाँ

श्री रुद्र इस बातपर अकसर बहुत अफसोस जाहिर किया करते थे कि अपने लालनपालनके कारण उनमें यूरोपीय समाजकी जो कतिपय अनावश्यक आदतें आ गई है उन्हें वे अब अपनी इस उम्रमें नहीं बदल सकते। क्या यह सचमुच दुःखकी बात नहीं है कि बहुत-से ईसाई भारतीय अपनी मातृ-भाषाकी उपेक्षा करते हैं और अपने बच्चोंका ऐसा लालन-पालन करते हैं जिससे वे सिर्फ अंग्रेजी ही बोल सकें? इस तरह क्या वे उस राष्ट्रसे अपना सारा सम्बन्ध तोड़ नहीं लेते जिसमें उन्हें रहना है? वे अपने बचावमें कह सकते हैं कि बहुत-से हिन्दू, बल्कि मुसलमान भी तो यही करते हैं। किन्तु 'तू भी तो ऐसा ही है' वाली दलीलसे कुछ बननेवाला नहीं है। मैं यह सब आलोचनाके विचारसे नहीं, बल्कि एक ऐसे मित्रके नाते लिख रहा हूँ, जिसे पिछले तीस वर्षोंसे सैकड़ों ईसाई भारतीयोंके निकटतम सम्पर्कमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त रहा है। मैं चाहता हूँ, मेरे मिशनरी भाई और ईसाई भारतीय इन पंक्तियोंको सद्भाव पूर्वक ग्रहण करें; क्योंकि ये सद्भावसे ही लिखी गई है। मैं यह बात हृदयकी एकताके तकाजेपर और उसीकी खातिर लिख रहा हूँ। मैं इस देशके विभिन्न धर्मावलम्बियोंके बीच एकता स्थापित होते देखना चाहता है। प्रकृतिमें हम अपने चारों ओर जो विविधता देखते है उस विविधताके पीछे एक बुनियादी एकता है। धर्म भी इस प्राकृतिक नियमके अपवाद नहीं है। मनुष्य-जगतको धर्मका दान इसीलिए मिला है कि इस मौलिक एकताको चरितार्थ करनेकी प्रक्रियाको यह गति प्रदान कर सके।

[अंग्रजीसे]
यंग इंडिया, २०–८–१९२५
 

५१. टिप्पणियाँ
स्वराज्य-सम्बन्धी एक घोषणा

एक प्रतिष्ठित सज्जनने मुझे एक पत्र लिखा है। पत्र इतना युक्ति-युक्त और अन्यथा भी इतना विशिष्ट है कि इसमें कही गई सभी बातोंसे सहमत न हो सकते हुए भी मेरी इच्छा होती है कि इसे प्रकाशित कर दूं। लेकिन, पत्र-लेखकने स्वयं ही इसके एक बड़े अंशको, जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और रोचक भी है, प्रकाशित न करनेको कहा है और उसके जो कारण उन्होंने बताये है वे सर्वथा उचित भी है। पत्रमें मुख्य रूपसे मुझे यह समझाने का प्रयत्न किया गया है कि मेरे हिन्दू-मुस्लिम एकता और उसको प्राप्त करनेके तरीकेपर आग्रह करने का परिणाम फिलहाल तो वास्तवमें यही हुआ है कि दोनों जातियोंके बीचकी दरार उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। इसके बाद उन्होंने मुझको यह सलाह दी है कि मैं यह राग अलापना बन्द कर दूँ और तब अन्तमें वे कहते हैं :[१]

  1. पत्रका उक्त अंश यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने गांधीजीसे अनुरोध किया था कि आप यह घोषणा कीजिए कि देशके लिए आपकी कल्पनाके स्वराज्यका तात्कालिक लक्ष्य लोकतांत्रिक राज्य है; वह धर्म-निरपेक्ष होगा। उसमें कोई धार्मिक बाध्यता नहीं होगी, धर्मके आधारपर किसीको न कोई सुविधा दी जाएगी और न इसके कारण किसीपर कोई निर्योग्यता लादी जाएगी सबको विकास और उन्नतिके समान अवसर मिलेंगे; और सर्वाधिक है कि सभी जातियों और धर्मोंकी गरीब और पिछड़े लोगों को ऊपर उठाने की विशेष सुविधाएँ दी जाएगी और ऐसा करते हुए परिवार, जाति, और धर्म का ख्याल नहीं रखा जायेगा बल्कि इसका निर्णय पात्रताके आधार पर किया जायेगा पत्रलेखक का खयाल था कि यदि प्रमुख सम्प्रदायिक नेताओं द्वारा इस सिद्धान्त पर स्वीकृति प्राप्त हो जाय तो इसका मतलब एक बड़ी हदतक मादरे हिन्दकी सन्तानोंके बीच एकता स्थापित करने का लक्ष्य प्राप्त कर लेना है। उन्होंने गांधीजीको अलीबन्धुओं और खिलाफतवादियोंको भी ऐसी घोषणा करनेपर राजी करने के लिए सुझाव दिया था।