पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/१२६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, कि अपने धर्मको छोड़नेवाला ऐसा व्यक्ति बन्धनसे छूटकर मुक्ति और दारिद्रयसे छूटकर समृद्धिपूर्ण जीवन प्राप्त करता है। देश में दौरा करते हुए ऐसे बहुत-से ईसाई भारतीयोंसे मेरी मुलाकात होती रहती है जो जिन परिवारोंमें जनमे है, उनमें जन्म लेनेके लिए वे लज्जितसे हैं, वे अपने पैतृक धर्म तथा वेश-भूषाके लिए तो निश्चय ही लज्जाका अनुभव करते है। वैसे तो आंग्ल-भारतीयोंका भी यूरोपीयोंकी नकल करना काफी बुरी चीज है, लेकिन भारतीय नव-ईसाइयोंका ऐसा आचरण तो अपने देश और कहूँ तो अपने नये धर्मके प्रति भी घोर अपराध है। 'न्यू टेस्टामेन्ट' में एक वचन आता है, जिसमें ईसाइयोंसे कहा गया है कि अगर तुम्हारे पड़ोसियोंको बरा लगे तो मांस भक्षण मत करो। और मेरे खयालसे, यहाँ मासमें मद्यपान और वेश-भूषा भी शामिल है। पुरातनमें जो-कुछ बुरा है, उससे आग्रहपूर्वक बचकर चलना तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन जब कोई प्राचीन प्रथा न केवल बुराईसे रहित हो, बल्कि वांछनीय भी हो, वहाँ अगर कोई यह भलीभाँति जानते हुए भी कि उस प्रथाके त्यागसे उसके कुटुम्बियों और मित्रोंको दुःख पहुँचेगा, उसका त्याग करता है तो यह घोर अपराध है। धर्म-परि का मतलब अपनी राष्ट्रीयताका त्याग नहीं होना चाहिए। धर्म-परिवर्तनका मतलब तो पुरातनमें जो कुछ बुरा है, उसका निश्चित त्याग और नूतनमें जो-कुछ अच्छा है, उसको अंगीकार करते हुए उसमें जो-कुछ बुरा है, उससे पूरी सावधानीके साथ बचकर चलना होना चाहिए। इसलिए धर्म-परिवर्तनका मतलब ऐसा जीवन होना चाहिए जिसमें स्वदेशके प्रति और अधिक उत्सर्ग, ईश्वरके प्रति और अधिक समर्पण और आत्मशुद्धिकी पहलेसे अधिक तीव्र भावना हो। वर्षों पूर्व में स्वर्गीय कालीचरण बनर्जीसे मिला था। वहाँ जाने से पहले अगर मुझे यह मालूम न होता कि वे ईसाई है तो उनके घरको देखकर तो मैं नहीं समझ सकता था कि वे ईसाई है। उसमें और सामान्य आधुनिक हिन्दू परिवारके घरमें कोई फर्क नहीं था—वैसा ही थोड़ा-बहुत सादा-सा फर्नीचर, यूरोपीय रंग-ढंगसे अछूते एक साधारण हिन्दू बंगालीकी वेश-भूषा। मैं जानता है कि ईसाई भारतीयोंमें एक भारी परिवर्तन आ रहा है। उनमें से बहतसे लोगोंमें पुरानी सादगीकी ओर लौट चलनको तीव्र उत्कण्ठा है, वे अपने राष्ट्रके बनकर रहने और उसकी सेवा करनेके लिए आतुर हैं, लेकिन परिवर्तनकी यह प्रक्रिया बहुत धीमी है। इसमें प्रतीक्षा करनेकी क्या जरूरत है? इसके लिए किसी बड़े प्रयत्नकी आवश्यकता नहीं है। लेकिन मझे बताया गया है कि इसका विरोध किया जाता है। अभी इसे लिखते समय भी मेरे सामने एक ईसाई भारतीय सज्जनका पत्र पड़ा हुआ है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि उनके और उनके मित्रोंके लिए यह परिवर्तन करना कठिन हो रहा है, क्योंकि ऊपरके लोग इस प्रयत्नका विरोध करते हैं। कुछ लोगोंने तो कहा है कि उनपर कड़ी निगरानीतक रखी जाती है और राष्ट्रीय आन्दोलनोंसे सम्बन्धित उनकी हर गतिविधिकी तीव्र भर्त्सनाकी जाती है। मेरे और स्वर्गीय प्रिंसिपल रुद्रके बीच इस बुरी प्रवृत्तिपर अकसर चर्चा हुआ करती थी। मुझे भलीभाँति याद है कि वे इस प्रवृत्तिकी किस तरह निन्दा करते थे। मैं पाठकोंको यह बताकर अपने इस दिवंगत मित्रके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ कि