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भाषण : रोटरी क्लबके सदस्योंकी बैठकमें


गांधीजीने अपने भाषणमें चरखके राजनीतिक पहलूपर जानबूझकर कोई चर्चा नहीं की थी, लेकिन अन्तमें बोलनेवाले रोटरी-सदस्य डा॰ सर्वाधिकारीने उन्हें उसकी चर्चा करने को बाध्य कर दिया। उन्होंने इस आशयका एक सवाल पूछ लिया कि 'अगर चरखेने हिन्दू कर्मकाण्डमें इतनी बड़ी भूमिका निभाई है और बंगाली परिवारों में वह एक जीवन्त वस्तुकी तरह विद्यमान है तो फिर इसका प्रयोग बन्द कैसे हो गया? क्या चरखेसे उत्पादित होनेवाली चीजकी भारी कीमतके कारण ही ऐसा नहीं हुआ है?' श्री गांधीने कहा कि इसका एक आध्यात्मिक पहलू भी है। अगर मुझे रानी एलिजाबेथकी तरह सत्ता प्राप्त होती तो मैं इस सवालको उसी तरह हल करनको कोशिश करता जिस तरह उन्होंने हल किया। उन्होंने अपनी प्रजाके लिए हालैंडके लेसका प्रयोग अपराध घोषित कर दिया और अपने देशवालोंको लेस बनाना सिखानेके लिए विदेशोंसे कारीगर बलाये और तबतकके लिए लेसका प्रयोग बन्द करवा दिया मैं पूरी तरहसे खुले व्यापारका समर्थक नहीं है और अगर मेरी चले तो भारी आयात-कर लगा कर सभी विदेशी कपड़ोंका आयात बन्द करवा दूँ। इसके बाद उन्होंने जोशमें आकर कहा :

आप पूछते है, यह उद्योग खत्म कैसे हुआ? उत्तर दुःखद है, लेकिन मैं दूँगा। मेरा उत्तर है कि वह अपने आप खत्म नहीं हुआ, जानबूझकर उसका गला घोटा गया है।

यहाँ मैं ईस्ट इंडिया कम्पनीके इतिहासको दूषित करनेवाले उसके रोमांचकारी दुष्कृत्योंकी कहानी कह सकता हूँ, लेकिन कहूँगा नहीं।

कोई भी ईमानदार स्त्री या पुरुष ईस्ट इंडिया कम्पनीके इतिहासके पन्ने, जिन्हें भारतीयोंने नहीं बल्कि कम्पनीके नौकरोंने ही लिखा है, उलट कर देखे तो उसका खून खौल उठेगा। आप इसी बातसे स्थितिका अनुमान लगा सकते हैं कि लोग अत्याचारोंसे बचने के लिए अपने अँगूठे काट लिया करते थे।

जैसा कि डा॰ सर्वाधिकारीने कहा, चरखा अब सभी भारतीय घरों में जीवित नहीं है। उसे तो समाप्त कर दिया गया था; अब उसे फिरसे जीवित किया जा रहा है। हर देशको अपने उद्योगोंका संगठन करना पड़ता है, और अगर आपको अपने देशमें उत्पन्न मालके लिए शुरूमें ज्यादा कीमत देनी पड़े तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। इस क्लबका सिद्धान्त है "स्वार्थसे पहले सेवा" मैं आपको इसकी याद दिलाकर आपसे यह कहना चाहता हूँ :

आप लोग भारतकी जनताके हितोंके रक्षक है। आपको स्वार्थसे पहले सेवाका ध्यान रखना है, और आपको उन लोगोंको यह सिखाना है कि जब वे अपने ही घरोंमें कपड़ा तैयार कर सकते हैं तो उन्हें मैचेस्टरके या मिलके बने कपड़ोंका उपयोग नहीं करना चाहिए।

उन्होंने एक विदेशी नौ-परिवहन कम्पनी और ब्रिटिश नौ-परिवहन कम्पनीके बीचको प्रतिस्पर्धाका उदाहरण दिया और कहा कि इस होड़में विदेशी कम्पनियाँ यहाँतक करती थीं कि डेकके यात्रियोंको लगभग बिना कीमतके टिकट देती थीं, जबकि किसी समय डेकके एक टिकटकी कीमत ९१ रुपये थी।