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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चीजको[१] जिसे सरकार मानती थी कि बदला नहीं जा सकता था—बदल नहीं दिया? (हर्षध्वनि)। क्या उन्होंने बहुतसे ऐसे काम नहीं कर दिखाये जिनपर हम वर्तमान पीढ़ीके लोग गर्व कर सकते हैं? हम लोग अपने-आपको बहुत बुद्धिमान मानते हैं। लेकिन उसका यह मतलब नहीं होना चाहिए कि हम इन महान् राष्ट्रनायकोंकी महान् सेवाओंको भूल जायें। इसलिए हम सर सुरेन्द्रनाथकी भस्मपर आँसू जरूर बहायें, लेकिन साथ ही कोई और बेहतर काम भी कर दिखायें। आज हममें से हरएकके सामने कुछ करने लायक काम है। उनमें से कुछ तो हमें अवश्य करने चाहिए। हममें उनकी वाग्मिता भले ही न हो, शायद हमारी स्मरणशक्ति भी उतनी अच्छी न हो, किन्तु हम उनकी देशभक्तिका तो अनुसरण कर सकते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति उनकी अचूक नियमितताका तो अनुकरण कर सकता है। अभी कुछ ही दिन पहले मुझे बैरकपुरमें उनसे मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उस समय उन्होंने मुझे बताया कि उनके स्वास्थ्य और शक्तिका रहस्य उनकी अचूक नियमितता थी। मुझे याद है कि सन् १९०१ में जब एक बहुत महत्त्वपूर्ण सभाकी कार्यवाही चल रही थी, उस समय उसे बीचमें बन्द कर देना पड़ा था। बात यह हई थी कि सर सुरेन्द्रनाथने बीच में ही उठकर कहा, 'सज्जनों, मुझे बैरकपुरकी आखिरी गाड़ी पकड़नी ही है।' सुरेन्द्रनाथ सभाकी समाप्तिकी प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। सभाको सर सुरेन्द्रनाथके कारण स्थगित करना पड़ा। उन्होंने ऐसा क्यों किया? उन्होंने समयकी पाबन्दी रखी, लेकिन स्वार्थवश नहीं, बल्कि जिस राष्ट्रको वे इतना अधिक प्यार करते थे, उसकी सेवाके लिए। तो हम उनके इन रचनात्मक गुणोंको याद रखें। बंगालमें शिक्षाके प्रचारके लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं किया? क्या वे एकस बंगालके नौजवानोंके हृदय-सम्राट् नहीं थे? तो आइए, हम उनकी देशभक्तिका अनुकरण करें; और हममें से प्रत्येक पुरुष, प्रत्येक स्त्री, प्रत्येक बच्चा उसका अनुकरण कर सकता है।

वैसे तो बहुत-सी और भी बातें हैं, लेकिन एक बातकी चर्चा किये बिना मैं नहीं रह सकता, क्योंकि यह एक पुनीत स्मृति है। जब मैं उनके साथ बैरकपुरमें था तब उन्होंने मुझसे कहा था, "मैं ९१ वर्षतक जीने जा रहा हूँ और अब मैं अपने संस्मरण-सम्बन्धी पुस्तकका दूसरा संस्करण तैयार कर रहा हूँ। अभी मैं सरकारसे बहुत-सी लड़ाइयाँ लडूँगा और स्वराज्यवादियोंसे भी अनेक मोर्चें लूंगा। मैं इन सब बातों में बहुत व्यस्त रहूँगा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि मेरी सबसे बड़ी इच्छा क्या है?" मैंने कहा, "नहीं, मुझे नहीं मालूम।" इसपर उन्होंने उत्तर दिया, "मैं विद्यासागरकी परम्पराओंका व्यक्ति हूँ। आप मेरी पुस्तकके प्रथम पृष्ठपर ही यह बात लिखी हुई देखेंगे। अगर मुझे अपना सारा जीवन फिरसे नये सिरेसे जीना हो तो आप जानते है कि मैं क्या करूँगा? मैं उपेक्षित विधवाओंकी सेवा करूँगा। में अनेकानेक टूट-बिखरे घरोके सौभाग्यको संवारूँगा। मैं निरीह बालिकाओंपर जबरदस्ती थोपे गये वैधव्यके अभिशापको नहीं देख सकता (हर्षध्वनि)।" तो

  1. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ ११६–१८।