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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अर्थकी छान-बीन किये बिना, 'वेद' में जो कुछ लिखा है उस सबको मान लेना मूर्ति- पूजा है, बुतपरस्ती है, अत: त्याज्य है। जिस मूर्तिको देखकर तुलसीदास पुलकितगात होते थे, ईश्वरमय, राममय बनते थे, उसका पूजन करते हुए उनका रूप शुद्ध मूर्ति- पूजकका था और इसलिए वे वन्दनीय तथा अनुकरणीय हैं।

अन्धविश्वास मात्र बुतपरस्ती अथवा निन्द्य मूर्तिपूजा है, जो हर तरहके रिवाजको धर्म मान लेते हैं वे निन्द्य मूर्तिपूजक हैं। अतः ऐसी जगह मैं मूर्तिभंजक हूँ। कोई भी मुझसे शास्त्रके प्रमाण देकर असत्यको सत्य, कठोरताको दया और वैर-भावको प्रेम नहीं मनवा सकता। इसलिए और इस अर्थ में मैं मूर्तिभंजक हूँ। कोई मुझे द्वयर्थक या क्षेपक श्लोक उद्धृत करके अथवा धमकी देकर अन्त्यजोंका तिरस्कार या त्याग करना या उनको अस्पृश्य मानना नहीं सिखा सकता और इसलिए मैं अपनेको मूर्तिभंजक मानता हूँ। मैं माँ-बापकी अनीतिको भी अनीतिकी तरह देख पाता हूँ और इस देशपर अथाह प्रेम होते हुए भी इसके दोषोंको देखकर उन्हें सबके सामने रख सकता हूँ, और इसलिए मैं मूर्तिभंजक हूँ।

मेरे मनमें वेदादिके प्रति पूरा-पूरा और स्वाभाविक आदरभाव है। मैं पाषाण- में भी परमेश्वरको देख सकता हूँ। मेरा मस्तक साधु पुरुषोंकी प्रतिमाओंके प्रति अपने-आप झुक जाता है, इस अर्थमें अपनेको मूर्तिपूजक मानता हूँ।

इसका अर्थ यह है कि गुण-दोष विशेष-रूपसे बाह्य कार्यकी अपेक्षा आन्तरिक भावमें होता है। किसी भी कार्यकी परीक्षा कर्ताक भावको देखकर की जा सकती है। माताका सविकार स्पर्श पुत्रको नरकवास कराता है; और उसीका निर्विकार स्पर्श उसे स्वर्ग प्रदान करवाता है। द्वषभावसे चलाई छुरी प्राण हर लेती है, प्रेमभावसे लगाई छुरी प्राणदान करती है। बिल्लीके वे ही दाँत चूहेके लिए घातक, परन्तु अपने बच्चोंके लिए रक्षक होते हैं।

दोष मूर्तिकी पूजामें नहीं है, दोष ज्ञानहीन पूजामें है।

पेटलादके सत्याग्रहियोंका कर्तव्य

जिस समय पेटलादके सत्याग्रहियोंके संघर्षका शुभ अन्त हुआ मैं उस समय सफरमें था, इसलिए मुझे उसके सम्बन्धमें कुछ भी मालूम नहीं हो पाया था। अब मुझे मालूम हुआ है कि सत्याग्रही नेताओंने जो प्रस्ताव स्वीकार किया है उसे अनेक सत्याग्रही सैनिक माननेसे इनकार करते हैं। यदि यह बात सत्य हो तो यह खेदजनक है। सिपाहगरीका पहला लक्षण यह है कि नेता जबतक ईमानदार है तबतक यदि भूल कर रहा हो तो भी सैनिकोंको चाहिए कि वे उसके कार्यको स्वीकार करें। जब नेताके सम्बन्धमें यह निश्चयपूर्वक कहा जा सके कि वह दगाबाज निकल गया है तभी सैनिकोंको उसे पदच्युत करने या उसके कार्यको माननेसे इनकार करनेका अधिकार होता है। यदि हम. इस नियमको नहीं मानेंगे तो लोगोंकी संघशक्ति स्थिर या टिकाऊ नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, बल्कि इससे प्रजा अपने धर्मसे च्युत हो जायेगी। किन्तु मुझे इस मामलेमें तो नेताओंकी भूल कहीं भी दिखाई नहीं देती। वहाँ सत्याग्रह पैसेके लिए नहीं था, बल्कि सिद्धान्तके लिए किया गया था; सत्याग्रह