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गुलबर्गाका पागलपन

छिपी सूक्ष्म मूर्तिपूजाको खण्डित करता हूँ जो अपनी ईश्वर-पूजाकी विधिके अलावा दूसरे लोगोंकी पूजा-विधिमें किसी गुण और अच्छाईको देखनेसे इनकार करती है। इस किस्मकी सूक्ष्म मूर्तिपूजा, बुतपरस्ती ज्यादा घातक है; क्योंकि यह उस स्थूल और प्रत्यक्ष पूजासे, जिसमें कि एक पत्थरके टुकड़े या सोनेकी मूर्ति में ईश्वरकी कल्पना कर ली जाती है, अधिक सूक्ष्म और प्रच्छन्न है।

हिन्दु-मस्लिम ऐक्य के लिए यह आवश्यक है कि मुसलमान लोग न तो आपद्धर्मके तौरपर और न व्यवहार-नीतिके तौरपर बल्कि अपने मजहबका एक अंग समझकर दूसरोंके मजहबके प्रति तबतक सहिष्णुता बरतें जबतक कि दूसरे लोग अपने-अपने मजहबोंको सच्चा मानते रहें और इसी तरह हिन्दुओंसे भी यह आशा की जाती है कि वे धर्म और ईमान समझकर दूसरोंके धर्मोंके प्रति उसी सहिष्णुताका परिचय दें--फिर चाहे दूसरोंके धर्म उनको कितने ही प्रतिकूल क्यों न मालूम होते हों। इसलिए हिन्दुओंको चाहिए कि वे बदला लेनेकी इच्छाको अपने दिलोंमें जगह न दें। सृष्टिकी उत्पत्तिसे लेकर आजतक हम बदले अर्थात् प्रतिहिंसाकी नीतिकी आजमाइश करते आ रहे हैं और अबतक का अनुभव हमें बतलाता है कि वह बुरी तरह बेकार साबित हई है। उसके जहरीले असरसे हम आज बेतरह छटपटा रहे हैं। जो भी हो; पर हिन्दुओंको चाहिए कि मन्दिरोंके तोड़े जानेपर भी वे मसजिदोंकी ओर अँगुलीतक न उठायें। यदि वे बदलेका अवलम्बन करेंगे तो उनकी बेड़ियाँ और भी मजबूत हो जायेंगी और ईश्वर जाने, उनकी क्या-क्या दुर्गति होगी। इसलिए चाहे हजारों मन्दिर तोड़-फोड़कर मिट्टी में क्यों न मिला दिये जायें, मैं एक भी मसजिदको न छुऊँगा और इस तरह धर्मान्ध, दीवाने लोगोंके तथाकथित धर्मसे अपने धर्मको ऊँचा साबित करनेकी उम्मीद रखूँगा। अलबत्ता यदि मैं यह सुनूँगा कि पुजारी लोग अपने मन्दिरों और मूर्तियोंकी रक्षा करते-करते काम आ गये तो मेरे दिलकी कली खिल उठेगी। ईश्वर घट-घट व्यापी है। वह मूर्तिमें भी विद्यमान है। फिर भी वह अपने और अपनी मूर्तिके अपमान और तोड़-फोड़को चुपचाप सहनकर लेता है। पुजारियोंको भी चाहिए कि वे अपने भगवान की तरह ही अपने मन्दिरोंकी रक्षाके लिए कष्ट-सहन करना और मरना सीखें। यदि हिन्दू लोग बदलेमें मसजिदें तोड़ने लगेंगे तो वे अपनेको भी उन्हीं लोगोंकी तरह धर्मान्ध साबित करेंगे जो कि मन्दिरोंको अपवित्र करते हैं और इस तरह वे अपने धर्म अथवा अपने मन्दिरोंकी रक्षा तो कर ही नहीं पायेंगे।

अब उन अज्ञात मुसलमानोंसे, जो निःसन्देह इन मन्दिरोंकी तोड़-फोड़में भीतरही-भीतर शरीक है, मैं कहता हूँ:

याद रखो, इस्लामकी जाँच तुम्हारी करतूतोंसे हो रही है। मैंने अभीतक एक भी ऐसा मुसलमान नहीं देखा, जिसने इन हमलोंकी ताईद की हो--फिर वे भले ही किसीके उभारे जानेपर ही क्यों न किये गये हों। मुझे जहाँतक दिखाई देता है, हिन्दुओंकी तरफसे आपको उत्तेजित होनेका मौका या तो दिया ही नहीं गया है या दिया भी गया है तो बहुत ही कम। पर अच्छा, फर्ज कीजिए कि बात इसके खिलाफ हुई है अर्थात् हिन्दुओंने मुसलमानोंको दिक करने के लिए मसजिदके नजदीक


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