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२९. सन्देश: धाराला परिषद्को

१५ मई, १९२४

आपने लुटेरों के साथ अपनी प्रथम सात्विक भेंटकी जो चर्चा की थी उसे मैं आजतक नहीं भूला हूँ। आज आप उस समयकी अपेक्षा बहुत आगे बढ़ गये हैं। आपने धाराला भाइयों और बहनोंको अपने स्नेह पाशमें बाँध लिया है। मेरी कामना है कि यह सम्बन्ध दृढ़तर होता जाये और आप इन भाई-बहनोंकी सर्वतोन्मुखी उन्नतिमें सहायक बनें।

मुझे इस बातका पूरा यकीन है कि यदि किसी जातिमें कुछ लोग लुटेरे और आवारा बन जाते हैं तो उसका दायित्व उसी जातिपर होता है। लुटेरोंको लूटमार करना अच्छा लगता हो, सो बात नहीं है। लोग स्थितियोंसे मजबूर होकर लूटपाट करते हैं। जब वे समाज द्वारा दण्डित किये जाते हैं तब उनकी यह आदत और भी पक्की हो जाती है और इस तरह यह रोग फैलता जाता है। यदि हम लुटेरों और दूसरे जरायमपेशा लोगोंके साथ भी प्रेमका व्यवहार करें तो वे अपनी भूल समझ जाते हैं और नेक बन जाते हैं।

आप इस तरह अमूल्य कार्य कर रहे हैं। मुझे यह मालूम है कि धाराला जातिके सभी लोग लुटेरे नहीं है। उनमें से बहुत से लोग तो नीतिमान है। परन्तु हमने अज्ञानवश उन्हें अपने से दूर कर रखा है। मैं आपके इस कार्यको सब कार्योंसे अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। यह कहना अनुचित न होगा कि आपके इस कार्यसे भारतका पुनरुद्धार होना सम्भव है।

आप अपने प्रेमको विवेकशून्य न बनने दें। आप धाराला भाइयों और बहनोंको किसी उद्योगमें प्रवृत्त करें। आप उन लोगोंके बीच यह प्रचार तो कर ही रहे होंगे कि वे अपने हाथका कता-बुना कपड़ा पहनें, मद्यपान और अफीम इत्यादि व्यसनोंको त्याग दें, अपने बालकोंको पाठशालाओंमें भेजें और बड़े-बूढ़े भजन-कीर्तन सीखें। परन्तु मैं चाहता हूँ कि आप इस दिशामें और भी अधिक प्रयत्न करें। ईश्वरसे मेरी प्रार्थना है कि सम्मेलनका कार्य निर्विघ्न समाप्त हो और आपकी सेवा करनेकी शक्ति और भी बढ़े।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १८-५-१९२४

१. बोरसदमें हुई इस परिषद्के लिए गांधीजीने यह सन्देश रविशंकर व्यास को भेजा था। व्यासजी बादमें रविशंकर महाराज के नामसे विख्यात हुए। वे गांधीजी के पक्के अनुपायी और समाज-सेवी हैं और उन्होंने आजीवन धारालाओंका सुधार करनेका व्रत लिया है।

२. धाराला गुजरातकी एक उग्र और युद्धप्रिय जाति है। इस जातिके लोग खेतीबारी करते हैं, परन्तु उनमें से कुछ, खासकर अकालके दिनोंमें, लूटमार करने लगते हैं।