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जिसके कारण मैं अपने विचार बदल दूँ। इनमें से एक पत्र-लेखकके इस विचारसे में सहमत नहीं हूँ कि मौलाना साहबने हिन्दुओंके प्रति दुर्भावना दिखाई है और अब हिन्दू-मुस्लिम एकताकी कोई सम्भावना नहीं रही। मौजूदा तनातनी और हमारे रोड़े अटकाने के बावजूद वह एकता तो आ ही रही है। मौलाना साहब इस एकताके प्रेमी न हों, बल्कि छिपे हुए शत्रु हों तो भी स्थितिमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हम तो ईश्वरके आगे तृणवत् हैं। वह हमें जहाँ चाहे फूँक कर उड़ा सकता है। हम उसकी इच्छाका विरोध नहीं कर सकते। उसने हम सबका सृजन ही एक होनेके लिए किया है। हमेशा अलग-अलग बने रहनेके लिए नहीं। बड़ा अच्छा होता अगर मैं अपनी आशा और विश्वासका संचार अपने पत्र-लेखकोंमें भी कर पाता। फिर मौलाना साहबमें अविश्वास करनेका उनके सामने कोई कारण न बच रहता। जो भी हो, मुझे आशा है कि पत्र लिखनेवाले सज्जन मुझे इस बातके लिए क्षमा करेंगे कि मैं न तो मौलाना साहबके धार्मिक विचारोंके बारेमें उन लोगोंके पत्र प्रकाशित कर रहा हूँ और न इससे अधिक उनपर कोई चर्चा ही करने जा रहा हूँ।

उर्दू और कताई सीखना

त्रिवेन्द्रम सेन्ट्रल जेलसे श्री जॉर्ज जोजेफ लिखते हैं:

हम सब यहाँ बड़े आनन्दसे हैं और जेल अधिकारियोंसे हमारा सम्बन्ध काफी सौहार्दपूर्ण है। कुल मिलाकर यहाँके कैदियोंकी स्थिति वैसी ही है जैसी १९२२ के आरम्भमें संयुक्त प्रान्तकी जेलों में “राजनीतिक कैदियों” की थी।
मुझे चरखा मिल गया है और मैं प्रतिदिन तीन घंटे सूत कातता हूँ। अभी मेरे पास जो रुई है, वह मदुरईके एक मित्रने धुनकर तथा उसकी पूनियाँ बनाकर भेजी है। इसके समाप्त हो जानेपर मेरा इरादा त्रावणकोरकी कपास मँगानेका है। मैं स्वयं उसे ओट-धुनकर पूनियाँ बना लिया करूँगा; और आशा है कि इन प्रारम्भिक क्रियाओंमें काफी कुशल हो जाऊँगा। हिन्दीके सम्बन्धमें स्थिति यह है: जब मुझे १९२२ में जेल भेजा गया था तो वहाँ मैंने काफी उर्दू सीखी और मैं मानता तो यह हूँ कि मैं कामचलाऊ उर्दू जानने लगा हूँ। काफी हद तक में उर्दू (अखबार, आधुनिक गद्य, आसान कविता आदि) पढ़ और समझ सकता हूँ। मैं हिन्दी अलगसे नहीं सीखना चाहता। मैंने अपनी उर्दूकी पुस्तकें मँगाई हैं और कुछ समय उनपर भी लगाया करूँगा, जिससे मुझे उस भाषाका कुछ और ज्ञान हो जाये।

समयको पाबन्दीका अनुरोध

निजाम राज्यमें तैयार किये गये एक बहुत ही सुन्दर स्वदेशी कागजपर एक व्यक्तिने मेरे पास निम्नलिखित पत्र भेजा है:

मैं आपका ध्यान इस बातकी ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ कि कुछ नेतागण अपने भाषणों के सम्बन्धमें समयको पाबन्दी नहीं करते। इससे जनताको