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टिप्पणियाँ

सेवा करना धर्म है और उसमें इज्जत है। परतन्त्रतामें जो नौकरी की जाती है वह अधर्म है और उसमें बेइज्जती है। जहाँ सब अधिकारी बनना चाहते हों और कोई किसीकी बात मानने के लिए तैयार न हो वहाँ स्वच्छन्दताका जो तन्त्र बन जाता है वह प्राणपोषक नहीं, प्राणघातक होता है। यदि बोरसदकी परिषद् गुजरातके लिए शुद्ध सेवकोंका दल मुहैया कर सके तो कहना चाहिए कि बहुत बड़ा काम हो गया।

परिषद्के सभापति कालेलकर हैं। अन्त्यज परिषद् के सभापति मामा फडके है। दोनों जन्मतः दक्षिणी है और स्वेच्छासे गुजराती बने हैं। इससे मेरी दृष्टिमें वे और भी अधिक दक्षिणी तथा और भी अधिक गुजराती हो गये हैं। महाराष्ट्रमें जो बातें अच्छी हैं उन्हें वे गुजरातको दे रहे हैं और गुजरातमें जो अच्छाई है उसे वे अन्तर्ग्रहण कर रहे हैं। महाराष्ट्र और गुजरात इत्यादि हिन्दुस्तानके अंग हैं और एक-दूसरेके पोषक है। पोषक होनेपर ही वे एक शरीरके अंग बन सकते हैं। अत: आशा है कि काका साहब और मामा साहबको गुजरात अच्छी तरह पहचानेगा और अपनायेगा। गुजरातको यह खयाल न करना चाहिए कि पराये तो आखिर पराये ही होते है। ऐसे विचारकी उत्पत्ति द्वेषके कारण होती है। हमें तो उलटे यह चाह रखनी चाहिए कि यदि महाराष्ट्र ऐसा कर सके तो अभी और कार्यकर्ताओंको हमारे यहाँ भेजे। सेवकके लिए तो सभी जगह क्षेत्र खुला पड़ा है। अपने पदका विचार तो नेताओंको ही करना पड़ता है। काका और मामा बिलकुल सेवा-परायण होकर गुजरातमें रह रहे हैं। गुजरातने उन दोनोंका अपूर्व सम्मान करके इसकी प्रतीति प्रकट की है और उनका सम्मान करके स्वयं अपना गौरव बढ़ाया है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ११-५-१९२४

१६. टिप्पणियाँ

बोहरोंका डर

एक बोहरा सज्जन लिखते हैं।

मैंने इस पत्रमें से ऐसी कितनी ही बातें निकाल दी है जो जुल्मोंको साबित करने के लिए लिखी गई थीं। भूतकालके झगड़ोंको ताजा करने से किसीका लाभ नहीं। इन बोहरा बन्धुने जो प्रश्न उठाया है वह गम्भीर है; उसका हल उसे ‘नवजीवन' में छाप देने या उसपर टीका-टिप्पणी कर देने से नहीं होता। हिन्दू-मुसलमान और ईसाई आदिके साथ ‘बोहरा' जोड़ दिया जाये तो भी उससे सन्तोष होनेवाला नहीं है। एक अरसा हो गया, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यको चर्चासे वातावरण गूंज रहा है। परन्तु

१. दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर।

२. विठ्ठल लक्ष्मण फडके।

३. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है।