हमें इन दोनों शर्तोंको छिपाकर नहीं रखना चाहिए। माता-पितासे डर कैसा ? यदि उन्हें यह बात पसन्द न हो तो वे अपने बच्चोंको सरकारी शालामें भेज देंगे, यही न ? फिर सरकारी शालाओं और हमारी राष्ट्रीय शालाओं में भेद क्या रहा ? मैंने स्वयं यह बात कही थी कि हमारी और सरकारी शालाओं में भेद इतना ही है कि हमारी शालाओंमें स्वतन्त्रताका वातावरण है। कोई भी पूछ सकता है कि क्या इतना काफी नहीं है? हाँ, काफी है; परन्तु मैं चरखे और अन्त्यजोंको तो कभी भूला नहीं हूँ। मैंने स्वप्न में भी यह खयाल नहीं किया है कि स्वतन्त्रताका अर्थ स्वच्छन्दता है । बालक खुशीसे शिक्षकोंके सिरपर चढ़ें, उन्हें गालियाँ दें और उनसे अशिष्टता पूर्वक बोलें, परन्तु वे उनका कहना जरूर मानें। जो बालक अन्त्यजकी गर्दनपर बैठता है। वह स्वतन्त्रताको क्या जाने ? उसे स्वतन्त्रतासे अनुराग भी कैसे होगा ? बारडोली के जो सवर्ण दुबला जातिके लोगोंको सताते हैं वे जुल्म ढाना तो जानते हैं; किन्तु वे स्वराज्यको क्या समझें ? शिक्षकोंकी तो यह प्रतिज्ञा है कि वे हर प्रकारके जुल्मको रोकेंगे। मैं यह नियम बनाना चाहूँगा कि प्रत्येक परीक्षाके अवसरपर हर विद्यार्थी अमुक मात्रामें अपना काता हुआ सूत अवश्य दे। फिर मैं थोड़े ही दिनोंमें दिखा सकूंगा कि हरएक राष्ट्रीय शाला स्वावलम्बी बन सकती है । मैं यह बता सकूंगा कि मैंने हिन्दुस्तान के सामने जो सिद्धान्त रखे हैं वे सच्चे हैं।
मैं यह दिखा सकता हूँ कि जो सिद्धान्त में देशके सामने रख रहा हूँ वे ठोस हैं । यदि हम अपनी शालाओंको राष्ट्रीय बनाये रखना चाहते हैं तो हमें ये दोनों काम करने ही चाहिए। यदि शिक्षक कातना, धुनना और कपासकी परख करना न जानता हो तो वह इसे जरूर सीख ले। वह अपनी फुरसतका सारा वक्त इसीके लिए दे । यदि शिक्षक खुद ही यह सब न जानता हो तो वह बालकोंको क्या सिखा-येगा ? कुछ शिक्षक शायद यह कहें कि वे तो सिर्फ भाषा ज्ञान ही देंगे ? हम कातने, धुनने और बुनने आदिकी कला सिखाने के लिए दूसरोंको रख लें । इसपर मैं कहूँगा कि जिस प्रकार हममें खानेकी शक्ति है, और कपड़े पहननेका ज्ञान है उसी प्रकार हमें कातना आदि भी जरूर आना चाहिए। ऐसा होनेपर ही बालकोंको पदार्थ-पाठ दिया जा सकता है ।
अबतक सब रुपया महाविद्यालय, विनय मन्दिर और अन्त्यज शालाओंके निमित्त ही खर्च किया गया है । विद्यापीठने प्राथमिक शालाओंपर जोर नहीं दिया है। यदि मेरे प्रतिपादित सिद्धान्त जीवित रखे जाने हैं तो हमें विद्यापीठको खादी-शाला बनाना होगा । असहयोग आन्दोलन सार्वजनिक है । वह थोड़ेसे लोगों के लिए नहीं है । हम तो भारत के करोड़ों नर-कंकालोंको जगाना और उनपर थोड़ा मांस चढ़ाना चाहते हैं । हमें तो खाना दाना मिल रहा है, इससे हमारे बदनपर चरबी चढ़ी हुई है और हमको लगता है कि हम ठीक दिखाई देते हैं । परन्तु हिन्दुस्तानमें कितने नर कंकाल हैं जिनपर चमड़ीके सिवा दूसरा कोई आच्छादन नहीं । मैं इन्हें देखकर रोया हूँ । यदि आप भी इन्हें देखें तो रोये बिना न रहें और कह उठें 'सचमुच लोगोंकी ऐसी हालत है ?'