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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
जाती हैं। उनके भाईने मुलाकातके लिए दो बार लिखा, पर कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं दिया गया। लेकिन मैं इस सबकी चिन्ता नहीं करती। इन्सान कठिनाइयोंमें से गुजरकर ही ऊपर चढ़ता है।

यह करुणाजनक पत्र एक पतिपरायणा महिलाका लिखा हुआ है, श्रीमती गिडवानीका पत्र प्रकाशनके लिए नहीं लिखा गया था। वह एक मित्रको लिखा गया घरेलू पत्र है। मैंने उन मित्रको लिखा था कि वे श्रीमती गिडवानीसे उनके पतिकी हालतके बारेमें पूछे। यदि श्रीमती गिडवानी द्वारा बतलाई गई बातें सही हैं तो उनसे नाभाके वर्तमान प्रशासनकी इज्जत नहीं बढ़ती। प्रिंसिपल गिडवानीपर कोई मुकदमा नहीं चलाया गया है, फिर भी स्पष्ट है कि उनके साथ पक्के अपराधियों- जैसा ही बरताव किया जा रहा है। श्री जिमंडने बतलाया है कि प्रिंसिपल गिडवानीने मानवताकी भावनासे प्रेरित होकर ही राज्यकी सीमामें प्रवेश किया था। नामाके प्रशासकोंसे मेरा कहना है कि वे या तो इस कथनका खण्डन करें या अपनी सफाई दें। इस बातका मैं वादा करता हूँ कि उनकी सफाईमें दिये गये उनके बयानको भी मैं उसी तरह प्रकाशित करूँगा जिस तरह मैंने श्रीमती गिडवानीके कथनको किया है।

पत्रकारिताकी भाषा

एक मित्र पूछते ह:
क्या आपने “महात्माको मानपत्र” शीर्षकसे लिखा गया ‘क्रॉनिकल' का अग्रलेख पढ़ा है? उसमें लेखकने लिखा है कि “यदि दो-तीन विरोधकर्ताओंके भाषणोंकी रिपोर्ट विरोध सूचित करती हो तो कहना पड़ेगा कि विरोध केवल विरोधके लिए किया गया था और उसके पीछे कुछ ऐसे पेशेवर झगड़ालू लोग ही थे, जिनके मनमें महात्माके आन्दोलनकी सफलतासे ईर्ष्याके कारण बड़ी ही कटुभावना व्याप्त हो गई है। ‘टाइम्स’ जब श्री मुहम्मद अलोके बारेमें लिखता है तो आप उसे उपदेश सुनाने लगते हैं। लेकिन क्या ‘क्रॉनिकल' के बारे में आप चुप रहना चाहेंगे जो अपने-आपको आपका अनुयायी बतलाता है और राजनीतिक विरोधियोंके लिए ऐसी असंयत और अयथार्थ भाषाका प्रयोग करता है?

‘टाइम्स' को कभी उपदेश देनेकी बात मुझे तो याद नहीं पड़ती। वैसे अगर कभी मैं यह चाहता भी तो साहस न होता। साफ है कि लेखकने मेरे उन शब्दोंका हवाला दिया है जो मैंने देशी भाषाओंकी उन कुछ-एक पत्रिकाओंके बारे में लिखे थे जो आजकल झूठी बदनामी फैलानेका अभियानसा चला रही हैं। हुआ यह था कि मैंने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया' में अनुवाद किये हुए कुछ अंश देखे और मुझे उनके बारे में लिखना ही पड़ा। पर मैंने उसमें ‘टाइम्स ऑफ इंडिया' को नहीं, सम्बन्धित पत्रिकाओंको ही सलाह दी थी। पत्र-लेखक खुद उसे देखकर अपनी तसल्ली कर सकता है। मैं यह आरोप तो स्वीकार नहीं कर सकता कि मैंने ‘टाइम्स'को कभी ‘उपदेश'