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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ब्रह्मचर्य या आत्मसंयम

२५ मई, १९२४ के ‘नवजीवन’ में मैंने इस सूक्ष्म विषयपर एक लेख लिखा था, जिसका महादेव देसाई द्वारा प्रस्तुत अनुवाद इस अंकमें दिया जा रहा है।[१] इस अनुवादको ‘यंग इंडिया’ में छापते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है, क्योंकि मेरे सामने इस विषयपर भारतके दूसरे स्थानोंसे भी आये बहुतसे पत्र मौजूद हैं। बिखरे हुए विचारोंको इस लेखमें सिलसिलेसे प्रस्तुत किया गया है; उससे पवित्र जीवन व्यतीत करनेके लिए हार्दिक प्रयत्न करनेवाले लोगोंको कुछ सहायता मिल सकती है। जिन लोगोंने इस विषयकी जिज्ञासा की थी, वे सबके-सब हिन्दू हैं और इसलिए स्वभावतः यह लेख उन्हींको लक्ष्य करके लिखा गया है। अन्तिम अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है और उसका सम्बन्ध उन बातोंसे है, जिन्हें व्यावहारिक जीवनमें उतारना है। ईश्वर और अल्लाह, दोनों शब्दोंका महत्त्व एक ही है। भावना यह है कि हम अपने भीतर ईश्वरके अस्तित्वका अनुभव करें। सभी पाप हम लुक-छिपकर करते हैं। जिस क्षण हम यह अनुभव कर लेंगे कि ईश्वर हमारे कामको तो क्या, विचारोंको भी देखता है, उसी क्षण हम मुक्त हो जायेंगे।

आचार्य गिडवानीके बारेमें

पण्डित जवाहरलाल नेहरूने नाभाके प्रशासकके नाम इन शब्दोंमें एक पत्र भेजा है:

मैने अभी-अभी २२ तारीखके यंग इंडिया में, श्री गिडवानीके कारावासके सम्बन्धमें श्री मो० क० गांधीके नाम लिखा गया आपका १२ मईका पत्र पढ़ा[२]। इस पत्रमें कहा गया है कि आपने मुझको तथा आचार्य गिडवानी और श्री के० सन्तानम्को दी गई सजा इस शर्तपर रद की थी कि हम यह राज्य छोड़कर चले जायें और बिना अनुमतिके उसमें वापस न आयें। लेकिन मुझे तो इस घटनाके बारेमें जो-कुछ याद है, उसके अनुसार स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। मेरा खयाल था और अभी भी है कि हमारी सजा बिना किसी शर्तके रद को गई थी। जहाँतक मुझे याद आता है, दण्ड-प्रक्रिया संहिताको धारा ४०७ के अधीन जारी किये गये सजा रद करनेवाले आदेशमें, बल्कि जिसपर आदेश लिखा हुआ था, उसमें भी अलगसे किसी शर्तका अथवा बिना अनुमतिके या अनुमति लेकर नाभा राज्यमें हमारे वापस लौटनेका कोई उल्लेख नहीं था। यह प्रश्न जेल सुपरिन्टेन्डेन्ट और पुलिसके प्रमुखके――साथ मौजूद थे――हमारी बातचीतमें और भी साफ हो गया था। बादमें हमें एक दूसरे कागजपर लिखे एक अन्य आदेशको सूचना मिली। इस आदेशको प्रशासनिक आदेश (एक्जीक्यूटिव आर्डर) कहा गया था। उसमें हमें राज्य:
  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पाठके लिए देखिए पृष्ठ १२१-२४।
  2. देखिए “टिप्पणियाँ", २२-५-२४, उप-शीर्षक आचार्य गिडवानी।