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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। मेरे लिए तो बहिष्कार तभीतक राष्ट्रीय है, जबतक राष्ट्रीय कांग्रेस अपने संगठनमें उसको लागू करती है। खिताबयाफ्ता लोग, वकील, शिक्षक और कौंसिलोंके सदस्य एक तरहसे सरकारके प्रशासन-तन्त्रकी स्वयंसेवी शाखाओंके प्रतिनिधि ही हैं। इसलिए यदि इन लोगोंको कांग्रेसके पदाधिकारियोंके रूपमें रखे बिना कांग्रेसको नहीं चलाया जा सकता तो कांग्रेस सरकारी संस्थाओंके प्रभाव और आकर्षण तथा प्रतिष्ठाको कम नहीं कर सकती। कांग्रेसके असहयोग कार्यक्रमके पीछे जो विचार काम कर रहा था, वह यह था कि यदि ऐसे तत्त्वोंके प्रभावके बिना, बल्कि उसके बावजूद, कांग्रेस संगठनका काम हम प्रामाणिक और अहिंसक ढंगसे सफलतापूर्वक चला सकें तो सिर्फ इतने-से ही हमें स्वराज्य मिल जायेगा। हमारा संख्या-बल इतना जबरदस्त है कि अगर यह राष्ट्रीय संस्था बहिष्कार-आन्दोलनको कारगर ढंगसे चला सके तो यह एक दुर्दमनीय शक्ति बन जायेगी। इसलिए निष्कर्ष यही निकलता है कि कोई भी खिताबयाफ्ता व्यक्ति, सरकारी स्कूलका शिक्षक, वकालत करनेवाला वकील, विधायक, विदेशी अथवा मिलोंका बना देशी कपड़ा भी पहनने वाला व्यक्ति या ऐसे कपड़ोंका व्यापार करनेवाला आदमी कांग्रेसकी कार्यकारिणीका सदस्य न हो। ऐसे लोग कांग्रेसके सदस्य तो बन सकते हैं, लेकिन उसकी कार्यकारिणी संस्थाओंके सदस्य उन्हें नहीं बनाया जाना चाहिए। वे कांग्रेसकी बैठकोंमें प्रतिनिधि बनकर जा सकते हैं और उसके प्रस्तावोंको प्रभावित करने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन जब एक बार किसी विषयपर कांग्रेस अपनी नीति निश्चित कर ले तो उस नीतिमें विश्वास न करनेवाले लोगोंके बारेमें मेरा विचार यही है कि वे कार्यकारिणीसे बाहर ही रहें। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और तमाम स्थानीय कार्यकारिणी समितियाँ ऐसी ही कार्यकारिणी ऍस्थाएँ हैं; और उनमें सिर्फ ऐसे ही लोग हों जो कांग्रेस द्वारा स्वीकृत नीतिमें पूरा-पूरा विश्वास रखते हों और उसपर अमल करने को तैयार हों। कांग्रेस संगठनमें एकल संक्रामणीय मत [सिंगिल ट्रान्सफरेबल वोट] के नियमकी शुरुआत मैंने ही कराई है। लेकिन अनुभवोंसे स्पष्ट हो गया है कि जहाँतक कार्यकारिणी संस्थाओंका सम्बन्ध है, यह नियम काम नहीं कर सकता। यदि कार्यकारिणी समितियोंको ऐसी संस्थाएँ बनाना है, फिलहाल जिनके जरिये कांग्रेसकी नीतिको कार्यरूप दिया जाना है तो इस विचारको छोड़ ही देना चाहिए कि इन संस्थाओंमें सभी मतोंके लोगोंको प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।

हमें पूरी सफलता न मिलने का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन कार्यकारिणी संस्थाओं के सदस्योंका कांग्रेसके सिद्धान्ततक में विश्वास नहीं रहा है। कार्यसमिति द्वारा बारडोली प्रस्ताव पास किये जाने के तुरन्त बाद दिल्लीमें हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीकी बैठकके सम्बन्धमें मैंने जो अपने विचार लिखे थे[१] आज भी मैं उन्हींपर कायम हूँ। उस समय मैंने बिलकुल ही साफ समझ लिया था कि यदि अधिकांश नहीं तो काफी सदस्य कांग्रेस-धर्मके अभिन्न अंगके रूपमें अहिंसा और सत्यमें विश्वास नहीं रखते। वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि “शान्तिपूर्ण”का:

  1. देखिए खण्ड २२, पृष्ठ ३९९-४०३, ४९२-९३ और ५२५-२९।