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६७. काठियावाड़ राजपूत परिषद्[१]

काठियावाड़में राजपूत परिषद् होनेवाली है। मेरी उसमें जाने की बड़ी इच्छा है; परन्तु यह सम्भव नहीं होगा।

काठियावाड़ शूरवीरोंकी भूमि थी। राजपूतोंकी बहादुरी संसारमें प्रसिद्ध है। परन्तु प्राचीन बहादुरीकी स्तुतिसे आज राजपूत बहादुर नहीं हो सकते। ब्राह्मणोंने ब्रह्मज्ञान छोड़ा, राजपूतोंने रक्षा-धर्म छोड़कर वणिक वृत्ति स्वीकार की और वणिक दास बन गये। तब यदि शूद्र सेवक न रहें तो इसमें उन्हें कौन दोष दे सकता है? चारों वर्गोंके पतित होनेपर उनमें से एक पाँचवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ――वह अस्पृश्य कहलाया। पाँचवें वर्णको उत्पन्न करके उसे दबाकर चारों वर्ण खुद भी दबे और पतित हुए।

ऐसी कठिन दशासे हिन्दुओंका उद्धार कौन करेगा? यदि हिन्दुओंकी रक्षा न हो तो मुसलमानोंकी रक्षा भी नहीं हो सकती। बाईस करोड़का पतन हो तो सात करोड़ नहीं टिक सकते। जब रेलगाड़ी चलती हो तब हम नजदीक नहीं खड़े रह सकते; उसका तीव्र वेग हमें घसीट लेगा।

अतः हिन्दुस्तानको आजाद करनेका उपाय हिन्दुओंकी उन्नति करना है। हिन्दुओंकी उन्नति शुद्ध रूपसे धार्मिक हो तभी हिन्दुस्तान बच सकता है। यदि हिन्दू पश्चिमके पशुबलका अनुकरण करने लगेंगे तो खुद भी गिरेंगे और दूसरोंको भी गिरायेंगे।

इस पतित हिन्दू-समाजका उद्धार कौन कर सकता है? भयभीत लोगोंको निर्भय कौन बना सकता है? यह धर्म तो क्षत्रियोंका है। अतः यदि राजपूत-परिषद् अपना कर्तव्य समझने और उसका पालन करने की इच्छा करे तो उसे अपने धर्मका विचार करना पड़ेगा।

रक्षा करनेके लिए तलवारकी जरूरत नहीं है। तलवारका जमाना चला गया अथवा शीघ्र ही चला जायेगा। संसारने तलवारका अनुभव बहुत कर लिया। वह अब तलवारसे घबड़ा गया है। पश्चिम भी तलवारसे ऊब गया जान पड़ता है। जो मारकर रक्षा करता है वह क्षत्रिय नहीं, बल्कि जो मरकर रक्षा करता है वही क्षत्रिय है। जो भाग खड़ा हो वह बहादुर नहीं है, बल्कि जो छाती खोलकर खड़ा रहे और प्रहार किये बिना प्रहार सहे वही क्षत्रिय है।

परन्तु थोड़ी देरके लिए मान लें कि तलवारकी आवश्यकता है; तो इससे भी क्या? रामने तलवार चलाई; किन्तु वे पहले चौदह साल बनमें तपस्या करके निर्मल हो चुके थे। पाण्डवोंने भी बनवास भोगा था। अर्जुनको इन्द्रके ही पास जाकर दिव्य अस्त्र प्राप्त करने पड़े थे। शस्त्रबलसे पहले तपोबलकी आवश्यकता होती है। यदि तपोबल न होगा तो यादवी (गृहयुद्ध) मच जायेगी और जिस प्रकार यादव अपने ही शस्त्रोंसे कट मरे उसी प्रकार हमारे शस्त्र हमारा ही संहार कर डालेंगे।

 
  1. अठारहवीं सदीके गुजराती कवि प्रीतमदासके गीतकी प्रथम पंक्तिका रूपान्तर।