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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कभी पूरा नहीं कर सकतीं; चरखा और करघा कर सकता है। लेकिन चरखेसे उत्पादित खादी अभी सर्वप्रिय और सार्वजनीन नहीं हो पाई है। यह तभी हो सकता है जब भारतके समझदार लोग उसका श्रीगणेश करें। अतएव उन्हें खादीके सिवा किसी कपड़ेका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। हमारी मिलोंको हमारे आश्रयकी जरूरत नहीं है, उनका माल काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा, मिलोंपर राष्ट्रका अंकुश भी नहीं है। वे परोपकारिणी संस्थाएँ नहीं हैं। वे जानबूझकर स्वार्थके लिए शुरू की गई हैं। उनका अपना प्रचार-कार्य भी हो रहा है। यदि मिलमालिक कालकी गति को पहचानेंगे तो वे अपने कपड़ेको सस्ता करके और उन स्थानोंमें कपड़ा पहुँचाकर, जहाँ अभीतक खादी नहीं पहुँच पाई है, विदेशी कपड़े के बहिष्कारमें सहायक होंगे। यदि वे चाहें तो अपनी मिलोंको खादीके साथ स्पर्द्धासे बचाते हुए केवल उसका पूरक उद्योग बननेमें सन्तोष मानेंगे। “यदि हरएक राष्ट्रीय कार्यकर्ता मिलके कपड़ेके उपयोगसे निष्ठापूर्वक बिरत न रहे तो विदेशी कपड़ेका बहिष्कार तत्काल सम्भव नहीं है।” यह बात इतनी स्पष्ट है कि इसके लिए किसी दलीलकी जरूरत नहीं। खादीकी खपत तो तभी हो सकती है जब पढ़े-लिखे और समझदार लोग इसे प्राथमिकता दें।

अबतक तो मैंने यह बात कहने का प्रयत्न किया कि यदि विदेशी कपड़ेका――न कि साम्राज्यके मालका--पूर्ण बहिष्कार सफलताके साथ करना है तो इसका तत्काल फलदायक और प्रभावकारी एकमात्र उपाय खद्दरका उपयोग है। लेकिन जब हम खादीकी इस क्षमताके साथ-साथ उसकी एक और शक्तिकी ओर ध्यान देते है तब तो उसका पक्ष अकाट्य ही हो जाता है। वह शक्ति यह है कि खादी करोड़ों भूख-पीड़ित लोगोंको रोजी भी दे सकती है।

अब शायद यह बात आसानीसे समझी जा सकती है कि हमें क्योंकर वातावरणको चरखामय बनाना चाहिए और क्यों उन तमाम स्त्री-पुरुषों और बच्चोंके लिए जो राष्ट्रके कल्याणके लिए चरखेकी आवश्यकता समझते हैं, धर्म-भावसे नित्य कुछ समय तक चरखा चलाना जरूरी है। भारतके किसान दुनियाके सबसे ज्यादा मेहनती किसानोंकी श्रेणीमें हैं, लेकिन साथ ही वे शायद सबसे अधिक निठल्ले भी रहते हैं। यह मेहनत और यह निठल्लापन दोनों उनपर थोपे गये है। खेतोंमें फसल पैदा करनेके लिए तो वे काम करते ही हैं; किन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनीने हाथ-कताईको समाप्त कर दिया और जिसके फलस्वरूप उनके पास जितने दिन खेती-बारीसे सम्बन्धित काफी काम नहीं होता, उन्हें बेकार रहना पड़ता है। ये किसान अब फिर चरखेको तभी ग्रहण करेंगे, जब हम उनके सामने मिसाल पेश करेंगे। महज उपदेशसे उनपर कोई असर नहीं होगा। जब हजारों लोग अपना प्रिय काम मानकर कताई करने लगेंगे तब यदि हम खादीकी कीमत आजकी ही तरह रखेंगे तो रोजीके तौरपर कताई करने- वालोंको ज्यादा मजदूरी भी दी जा सकेगी। मने खुद सत्याग्रह आश्रममें तैयार की गई खादी बहुत सस्ती बेची थी; क्योंकि जब मैं १९१९ में पंजाबके दौरेपर था तब वहाँकी बहनोंने मुझे मनों सूत प्रेमपूर्वक अर्पण किया था। यदि मैं चाहता तो खादीकी कीमत कम न करके कताईका धन्धा करनेवालोंको अधिक मजदूरी दे सकता था। मैंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि खादी-आन्दोलनकी वह प्रारम्भिक अवस्था थी और मुझे