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जेलके अनुभव ― ६


इस मामलेकी सही जानकारी प्राप्त करने और पहलेकी तरह उपवास करनेवालोंसे सम्पर्क स्थापित करनेका प्रयत्न करना चाहिए। मुझे लगा कि कैदी होते हुए भी मनुष्यके नाते हम ऐसे मामलोंमें उदासीन नहीं रह सकते; और जब लगभग अमानुषिक माना जाने लायक कोई घोर अन्याय होनेकी सम्भावना हो, उस समय कुछ परिस्थितियोंमें किसी कैदीको भी जेलके सामान्य शासनके बारेमें अपनी बात कहनेका हक होना चाहिए। इसलिए अन्तमें हम इस निष्कर्षपर पहुँचे कि यह मामला में अधिकारियोंके सामने रखूँ। ‘यंग इंडिया' के ६ मार्च, १९२४ के अंकमें प्रकाशित मेरे २९ जून, १९२३ के पत्रसे पाठक इस मामलेका शेष विवरण देख लें। खूब पत्र-व्यवहार हुआ, काफी बातचीत हुई। परन्तु यह सब खानगी ढंगका था, इसलिए उसे कहनेकी मेरी इच्छा नहीं है। इतना कह सकता हूँ कि अन्तमें सरकारको यह विश्वास हो गया कि मैं जेलके प्रबन्धमे ख्वाहमख्वाह दखल नहीं देना चाहता और उपवास करनेवाले भाइयोंमें से जिन दो नेताओंसे मिलने की मैने इजाजत माँगी है सो सिर्फ मानवताकी भावनासे प्रेरित होकर ही माँगी है। इसलिए मुझे जेल सुपरिन्टेन्डेन्ट और पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल श्री ग्रिफिथकी उपस्थितिमें भाई दास्ताने और देवसे मिलनेकी इजाजत दे दी गई। पूरे तेरह दिनके अखण्ड उपवासके बावजूद जब मैंने इन दो मित्रोंको बिना किसी सहारेके दृढ़ कदमोंसे चलते देखा तो मेरा हृदय एक अनुपम आनन्द और अभिमानसे भर गया। वे जितने बहादुर थे उतने ही प्रसन्न दिखाई देते थे। मैंने देखा, उनके शरीर बहुत ही क्षीण हो गये हैं, किन्तु साथ ही उनकी आत्मशक्ति उसी अनुपातमें निखर आई है। उन्हें आलिंगन करते-करते मैंने हँसकर पूछा, “क्यों, मरणके किनारे आ पहुँचे हो न?" वे बोल उठे, “नहीं; बिलकुल नहीं।" और भाई दास्तानेने कहा, “अगर जरूरत हुई तो हम अनिश्चित कालतक उपवास कर सकते हैं, क्योंकि हम सही रास्तेपर हैं।" इसपर मैंने पूछा, “और यदि हम गलत रास्तेपर हुए तो?" उत्तर मिला, “तो हम मदोंकी तरह अपनी गलती मान लेंगे और उपवास छोड़ देंगे।" उनके चेहरेपर ऐसा तेज झलक रहा था कि मैं क्षण भरके लिए भूल ही गया कि वे कई दिनसे भूखका कष्ट सह रहे हैं। काश, मेरे पास इतना समय होत कि मैं उस अवसरपर हुई सारी नैतिक चर्चाको यहाँ ज्योंकी-त्यों प्रस्तुत कर पाता। अपने उपवासका कारण उन्होंने मुझे यह बताया कि सुपरिन्टेन्डेन्टकी दी हुई सजा अन्यायपूर्ण थी और इसलिए जबतक वे अपनी भल स्वीकार न करें और माफी न माँगें तबतक उन्हें उपवास जारी रखना पड़ेगा। मैंने समझाया कि उनका यह रवैया सही नहीं है। जब मैं उनके उपवासके नैतिक आधारकी चर्चा कर रहा था, उसी समय सुपरिन्टेन्डेन्ट, अपने स्वाभाविक सद्भावके साथ, अपने-आप बीचमें ही बोल उठे, “मैं आपसे कह सकता हूँ कि मुझे महसूस हो जाये कि मैंने भूल की है तो मैं जरूर माफी माँग लूँगा। मुझे मालूम है कि मेरे हाथसे कई बार गलतियाँ भी होती हैं। हम सब गलती करते हैं। इस मामलेमें भी कदाचित मैंने गलती की हो, परन्तु मुझे उसका एहसास नहीं है।" मैं अपनी बातका प्रतिपादन करता रहा। इन मित्रोंको मैंने बताया

१. देखिए खण्ड २३ पृष्ठ १७९-८०।