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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सामने एक सुन्दर बगीचा था। एक कठिनाई अवश्य हो गई। उस पृथक विभागमें रहते हुए दिन-भर हमारे फाटकके सामने से गुजरते हुए कैदी हमें देखने को मिल जाते थे। यह सब सम्पर्क अब बिलकुल बन्द हो गया था और हम ज्यादा अकेले पड़ गये। लेकिन यह चीज अखरी बिलकुल नहीं। उलटे, एकान्त अधिक मिलनेसे अध्ययन और मननके लिए मुझे ज्यादा समय मिलने लगा और ‘बेतारके सन्देश’ का साधन तो मौजूद था ही। जबतक एक भी कैदी या कर्मचारीका हमारे पास लाजिम तौरपर आना-जाना बना था तबतक ये सन्देश किसी भी तरह रोके नहीं जा सकते थे। न बतानेकी इच्छा रखते हुए भी आने-जानेवालेके मुँहसे कुछ-न-कुछ निकल जाता था और हमें जेलकी घटनाओंकी जानकारी हो जाती थी। इस प्रकार एक दिन सबेरे हमने सुना कि मुलशीपेटाके कई कैदियोंको कम काम करने के अपराधमें कोड़े लगाये गये हैं। साथ ही यह भी मालूम हुआ कि इस सजाका विरोध करनेके लिए मुलशीपेटाके अन्य कई कैदियोंने भी उपवास शुरू कर दिया है। इनमें से दोको मैं जानता था। एक थे देव और दूसरे दास्ताने। श्री देवने मेरे साथ चम्पारनमें काम किया था। अपने आचरणसे उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि वे चम्पारनमें मेरे साथ काम करनेवाले सबसे निष्ठावान, समझदार और प्रामाणिक कार्यकर्ताओंमें से थे। भुसावलवाले भाई दास्तानेको तो सभी जानते हैं। कोड़े खानेवालों और भूख-हड़ताल करनेवालों में भाई देव भी एक है, यह जानकर मुझे कितना दुःख हुआ होगा, इसकी कल्पना पाठक आसानीसे कर सकते हैं। मेरे साथियोंमें इस समय भाई इन्दुलाल याज्ञिक और भाई मंजरअली सोख्ता भी थे। वे भी यह सुनकर उद्विग्न हो उठे। सबसे पहले तो उनके मनमें सहानुभूति प्रकट करने के लिए स्वयं भी उपवास करने का विचार आया, परन्तु हम ऐसी कार्रवाईके औचित्यके विषयमें चर्चा करके अन्त में इस निर्णयपर पहुँचे कि इस प्रकारका उपवास करना अनुचित है। कोड़ेकी सजाके लिए अथवा उसके परिणामस्वरूप शुरू किये गए उपवासके लिए नैतिक अथवा अन्य किसी भी दृष्टिसे हम जिम्मेदार नहीं थे। सत्याग्रहीके नाते हमें जेलके तमाम कष्टों, यहाँतक कि कोड़ेकी सजाके लिए भी तैयार रहना था और उन्हें हँसते-हँसते झेल लेना था। इसलिए भविष्य में ऐसी सजाएँ न दी जायें, इस खयालसे ऐसे उपवास करना जेल अधिकारियोंके प्रति एक प्रकारकी हिंसा करने जैसा था। इसके सिवा, अधिकारियोंके व्यवहारके औचित्य-अनौचित्यके बारेमें निर्णय करनेका हमें कोई हक नहीं था। ऐसा करना तो जेलके पूरे अनुशासनका अन्त कर देने के बराबर था और यदि हम अधिकारियोंके व्यवहारके औचित्य-अनौचित्यका निर्णय करना भी चाहते तो निष्पक्ष न्याय करने के लिए आवश्यक जानकारी हमारे पास नहीं थी और न वह जुटाई ही जा सकती थी। अब यदि उपवास करनेवालोंके प्रति सहानुभूतिसे प्रेरित होकर हम उपवास शुरू कर देते तो इस बातका निश्चय करने के लिए भी हमारे पास पूरे तथ्य नहीं थे कि उनका कदम ठीक था या नहीं। उपर्युक्त कोई भी एक कारण यह दिखानेको काफी था कि यदि हम उपवास करते है तो वह उतावलापन ही होगा। इन सब कठिनाइयोंका विचार करके मैंने अपने साथियों को सुझाया कि सबसे पहले तो मुझे सुपरिन्टेन्डेन्टसे