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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मुझे उधार दे दिया है और इस तरह मुझे भी बाँध लिया है। मेरा कर्तव्य है कि मैं इन कुटुम्बियोंकी मदद करता हुआ जितना बन सके, “साहेब" के प्रति उनके भक्ति-भावको पुष्ट करूँ। मैंने जो घोंसला बनाया है उसमें अन्य पक्षी भी आ बसे हैं। इनके मूलकी खोज करें तो मालूम होगा कि ये सब इस घोंसले में इसलिए आये हैं कि यहाँ उनको आश्रय मिला है। यहाँ उनके पंख काटे नहीं गये हैं, बल्कि वे और भी मजबूत बन गये हैं। इसलिए वे अपनी इच्छाके अनुसार उड़ सकते हैं। जबतक ये यहाँ रहेंगे तबतक मैं इनका कर्जदार हूँ। मैं इनको लानेवाला नहीं हूँ, इसीलिए इनको रखनेवाला भी नहीं हूँ। ये सब स्वतन्त्र हैं। लेकिन संयमका पालन करनेके कारण वे स्वेच्छाचारी नहीं कहे जा सकते।

इस “अण्णा" ने द्रविड़ प्रान्तमें हिन्दी-प्रजारके कार्यको उठा लिया है। इसके लिए उन्होंने और उनकी धर्मपत्नीने प्रयागमें हिन्दीका अभ्यास किया। दोनोंने प्रयागसे हिन्दीकी परीक्षा उत्तीर्ण की और बादमें मद्रासमें हिन्दी-प्रचारका काम करने लगे हैं। जो इस सम्बन्धमें अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहें वे उनसे ब्यौरा मँगवा सकते हैं।

भाई “अण्ण” “हिन्दी प्रचार” नामक एक पाक्षिक पत्र भी निकालते हैं। इन्हें बोरसदकी प्रान्तीय परिषद्की स्वागत समितिके अध्यक्षने निमन्त्रण भेजा था। वह साराका-सारा अंग्रजीमें था। क्या अण्णा इसे सहन कर सकते थे? उन्होंने मुझे एक तीखा पत्र लिखा है। उन्हें लिखना तो यह पत्र मोहनलाल पण्ड्याको था। अपराध तो उन्होंने किया और चोट पड़ी मुझपर। अण्णा पण्ड्याको जानते भी हैं; लेकिन वे शायद उनसे डरते हैं। मैं ठहरा एक दुबली गाय, अतः हर किसीकी लाठी मुझपर ही पड़ती है। अण्णाने भी वही किया है। वे लिखते हैं:

इसपर मुझे कोई टीका करनेकी जरूरत नहीं रह जाती। अण्णाको सन्तुष्ट करनेका एक ही रास्ता है। वह यह है कि जिन गुजरातियोंने अभीतक हिन्दी-उर्दू अर्थात् हिन्दुस्तानी न सीखी हो वे उसे सीख लें और अबसे परस्पर अथवा दूसरोंसे व्यवहारमें मुख्य रूपसे मातृभाषाका अथवा राष्ट्रभाषाका ही प्रयोग करें।

नरसिंहराव भाईका पत्र

यह पत्र मुझे जिस रूपमें मिला है, नरसिंहराव भाईकी इच्छानुसार उसी रूपमें प्रकाशित कर दिया है। मैंने उनके नामका जिस ढंगसे उपयोग किया है। देखता हूँ कि उससे उनको बड़ा दुःख हुआ है। इससे मुझे भी दुःख हुआ है और अनजाने ही मुझसे जो अपराध बन पड़ा है उसके लिए मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ। मैं जब किसीके भी नामका जानबूझकर मजाक नहीं उड़ाता, तब नरसिंहराव और ‘खबरदार' जैसे साहित्य-सेवियोंके नामके साथ इस प्रकारकी छूट कैसे ले सकता हूँ? मैंने जो कुछ

१.१३ मई, १९२४ को हुई सातवीं गुजरात राजनीतिक परिषद्।

२. मोहनलाल कामेश्वर पण्डया, गुजरातके खेड़ा जिलेके एक कांग्रेसी कार्यकर्ता।

३. यह पत्र यहाँ नहीं दिया गया है।

४. यह पत्र यहाँ नहीं दिया गया है।

५.देखिए खण्ड २३, पृष्ठ ५३०।