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हिन्दू और मुसलमान

बचाया है और वे उन्हें अब भी बचा रहे हैं। इसलिए अब उन्हें सुलहके रास्ते खोजने की जरूरत है। क्या उन्होंने वीसनगरके बाहरके हिन्दुओं और मुसलमानोंकी सलाह और सहायता ली है? क्या उन्होंने अली भाइयोंको या हकीमजीको पत्र लिखा है? सम्भव है, ये कुछ न कर सकें। परन्तु हिन्दुओंका फर्ज है कि वे उनसे सहायता माँगें। क्या हिन्दुओंने गुजरात के अग्रगण्य पुरुष वल्लभभाईकी सलाह ली है? उन्होंने अब्बास साहबकी बात नहीं सुनी और उनकी अवहेलना की। क्या उन्होंने इसके लिए उनसे माफी माँगी और उनकी सलाह ली है?

परन्तु श्री महासुखलाल कहते हैं कि दाढ़ी और चोटीकी कभी बन ही नहीं सकती। हिन्दू अपना निपटारा खुद कर लें। यदि वे सफेद टोपीवालों की बात मानेंगे तो वे हिन्दू न रहकर मुसलमान हो जायेंगे। मैं इन सज्जनसे नम्रतापूर्वक कहता हूँ कि यदि उनके विचार वैसे ही हैं जैसे कि मुझतक पहुँचे हैं तो वे भूल करते हैं। सफेद टोपीवालों में तो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी हैं। मैं उन्हें यकीन दिलाता हूँ कि सफेद टोपीवाले हिन्दू अपना हिन्दूपन नहीं त्यागेंगे। हमारा झगड़ा इस वक्त सफेद या काली टोपीका नहीं है। सफेद टोपीवाले बुरे हो सकते हैं। मैं उनकी सफाई क्या दूँगा? सबकी सफाई सबका अपना-अपना आचार देता है। परन्तु यह मान्यता मुझे भयंकर मालूम होती है कि हिन्दुओं और मुसलमानोंमें एकता हो ही नहीं सकती। इस विचारमें धार्मिक दोष है। यह विचार हिन्दू संस्कृतिके विरुद्ध है। हिन्दू धर्मके अनुसार किसीका सर्वथा नारा नहीं होता, अर्थात् सबके अन्दर एक ही आत्मा राम रही है। हिन्दू यह नहीं कह सकता कि दूसरोंको स्वर्ग तभी मिलेगा जब वे भी उसी बातको मानें जिसे वह खुद मानता है। मैं यह नहीं जानता कि मुसलमान ऐसा मानते हैं या नहीं। परन्तु मुसलमान भले ही यह मानते रहें कि तमाम हिन्दू काफिर हैं और वे स्वर्गके अधिकारी नहीं हो सकते। परन्तु हिन्दू धर्म हमें यह शिक्षा देता है कि हम ऐसोंसे भी प्रेम करें और उन्हें प्रेमपाशमें बाँधें, क्योंकि हिन्दू धर्म किसी धर्मकी अवगणना नहीं करता। वह सबसे कहता है, 'स्वधर्ममें ही श्रेय है'।

व्यवहारकी दृष्टिसे भी यह मानना कि हिन्दू-मुसलमानोंकी एकता असम्भव है, मानो हमेशा के लिए गुलामी कुबूल करना है। जो हिन्दू यह मानते हों कि सात करोड़ मुसलमानोंको हिन्दुस्तानसे नेस्तनाबूद किया जा सकता है वे महा अज्ञानमें फँसे हैं, यह कहते हुए मुझे जरा भी संकोच नहीं होता।

फिर, वीसनगर में हिन्दू और मुसलमान लड़ते हैं, इससे हम यह क्यों मान लें कि हिन्दुस्तान के सात लाख गाँवोंमें भी जहाँ-जहाँ दोनों जातियाँ बसती हैं, वहाँ-वहाँ दोनों लड़ती हैं? सारे हिन्दुस्तानमें ऐसे अनेक देहात हैं जहाँ हिन्दू और मुसलमान सगे भाइयोंकी तरह रहते हैं, इतना ही नहीं बल्कि वे यह भी नहीं जानते कि कुछ शहरों में और उनके नजदीकके गाँवोंमें दोनों लड़ रहे हैं।

अतः धर्म और व्यवहार दोनोंकी दृष्टिसे विचार करते हुए वीसनगरके समझदार हिन्दुओंको समझना चाहिए कि हिन्दुओं और मुसलमानोंमें मेल होना सम्भव और आवश्यक है। मैं असहयोगकी सलाह देनेवाले इन सज्जनको यह भी सूचित कर देना चाहता हूँ कि असहयोगका अर्थ अन्तमें सहयोग करना ही है। असहयोग मलिनताको