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त्यागकी मूर्ति

करनेवाले यह भूल जाते हैं कि यद्यपि मैं दोनों पक्षोंको अहिंसा-धर्म की दीक्षा देना चाहता हूँ, तथापि जो लोग अहिंसा-धर्मको सीखने में असमर्थ हैं अर्थात् भीरु हैं, उनसे मैं अहिंसाकी बात किस तरह करूँ? मैं अपने पुत्रको यह बात नहीं समझा सका। मैं दलित और पीड़ित बेतियाके लोगोंको यह धर्म नहीं सिखा सका।[१] उनसे तो मुझे यह कहना पड़ा था : यदि आपको इन दो मार्गों यानी अपनी स्त्रीको भाग्य के भरोसे छोड़कर भाग जाने अथवा लाठी लेकर अत्याचारीसे उसकी रक्षा करनेमें किसी एक मार्गको चुनना पड़े और यदि आप अत्याचारीके सामने निडर खड़े रहकर उसे चोट पहुँचाये बिना मरते दमतक सत्याग्रह करने के लिए तैयार न हों तो आप बेशक उसकी रक्षाके लिए लाठी लेकर लड़ें। सत्याग्रह कायरोंका धर्म नहीं है। जब मनुष्य अपनी कायरता छोड़कर वीर बनता है तब वह अहिंसा-धर्म सीखने के लायक होता है।

अब यदि हम उस शब्द-जालकी परीक्षा करें जो विधवा के सम्बन्धमें फैलाया गया है तो मालूम होगा कि इस दलीलको वही पुरुष पेश कर सकता है जो स्वयं विधुर रहने के लिए तैयार हो। जो लोग विधुरताको पसन्द न करते हों, या पसन्द करते हुए भी उसका पालन करने के लिए तैयार न हों, उनको उसे विधुरताकी आवश्यकताको स्वीकार करके वैधव्य प्रथा के समर्थन में दलीलके तौरपर पेश करनेका अधिकार नहीं है। कल्पना करें कि कोई साठ सालका बुड्ढा, जिसने दूसरा विवाह किया है, अपनी नौ वर्ष की बालिका पत्नीके वैधव्यका अभिनन्दन करते हुए अपने वसीयतनामे में वैधव्यकी प्रशंसा करता है और उस बेचारी भावी विधवा बालिकाकी सराहना करते हुए यह लिखता है, "परमात्मा न करे, परन्तु यदि मेरी मृत्यु मेरी सती पत्नीसे पहले हो जाये तो मैं जानता हूँ कि वह विधवा रहकर अपने कुटुम्बके, मेरे कुटुम्बके और हिन्दू धर्मके गौरवको कायम रखेगी। मैंने इस बालिकासे विवाह करके यह सबक सीखा है कि पुरुषको भी विधुर रहना चाहिए। अच्छा होता यदि मैं विधुर रहा होता। मैं अपनी दुर्बलताको स्वीकार करता हूँ। परन्तु पुरुषकी दुर्बलतासे वैधव्य और भी भूषित होता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि मेरी यह बालिका पत्नी मेरी मृत्युके बाद विधवा बनी रहे और संयम धर्मकी शोभा बढ़ाये।" उसकी ऐसी दलीलका असर उस बालिकापर या वसीयतनामा पढ़नेवाले पर क्या हो सकता है?

इस दलीलकी समीक्षा करनेकी आवश्यकता इसलिए थी कि उच्च धर्मके प्रवर्तनका आश्रय लेकर अथवा उसके बहाने धर्मके सदृश दिखाई देनेवाले अधर्मका बचाव बराबर होता रहता है। वैधव्यकी व्याख्यामें बाल-विवाह आ ही नहीं सकता। विधवा वह स्त्री है जिसका पति मर चुका हो—वह स्त्री जिसने उचित अवस्थामें अपनी इच्छा या सम्मति से विवाह किया हो और जो स्त्री-पुरुष के सम्बन्धसे परिचित हो गई हो। इस व्याख्यामें उन किशोर वयकी बालिकाओंका समावेश हो ही नहीं सकता और न होना चाहिए जो अक्षत-योनि हैं अथवा माँ-बापने जिन्हें अग्निकुण्ड में झोंक दिया है। अतएव बालिका के नाममात्रके 'वैधव्य' की पैरवी करना ही अनर्थ है। परन्तु जब पुरुष तकको

  1. देखिए खण्ड १९, पृष्ठ ९०।