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त्यागकी मूर्ति


यह स्थिति बुरी नहीं, अच्छी है। इसमें हिन्दूधर्मकी श्रेष्ठता है। में वैधव्यको हिन्दू धर्मका भूषण मानता हूँ। जब में विधवा बहनोंको देखता हूँ तब मेरा सिर अपने-आप उनके चरणोंमें झुक जाता है। विधवाका दर्शन मेरे लिए अपशकुन नहीं है। मैं प्रातःकाल उसका दर्शन करके अपने-आपको कृतार्थ मानता हूँ। मैं उसके आशीर्वादको एक बड़ा प्रसाद मानता हूँ। मैं उसे देखकर अपने तमाम दुःख भूल जाता हूँ। विधवा के मुकाबले पुरुष एक पामर प्राणी है। विधवाके धैर्यका अनुकरण असम्भव है। विधवाको प्राचीन कालकी जो विरासत मिली है उसके सामने पुरुषके क्षणिक त्यागकी पूँजीकी कीमत क्या हो सकती है?

विधवा अपने दुःखकी कहानी किसे सुनाये? यदि संसारमें वह किसीको सुना सकती हो तो अपनी माँको जरूर सुनाये। परन्तु वह उसे सुनाकर करे क्या? माँ उसकी क्या मदद कर सकती है? वह तो "धीरज रख बेटी" कहकर अपने काममें लग जायेगी। माँका घर उसका घर कहाँ है? विधवा तो ससुरालमें रहती है। सासके अत्याचारोंको बहू ही जान सकती है। विधवाका तो एकमात्र धर्म है सेवा। देवर, जेठ, सास, ससुरजी भी हों सबकी सेवा करना उसका काम है। यह सेवा करते हुए उसका जी ऊबता ही नहीं। वह तो उलटे अधिक सेवा करनेका बल चाहती है।

यदि इस विधवा धर्मका लोप होगा और कोई अज्ञान या उद्धतताके वशीभूत होकर सेवाकी इस साक्षात् मूर्तिका खण्डन करेगा तो हिन्दू धर्मको बड़ी हानि पहुँचेगी।

ऐसा वैधव्य किस प्रकार सुरक्षित किया जा सकता है? जो मां-बाप दस सालकी कन्याका विवाह कर देते हैं क्या उनको वैधव्यके पुण्यका कुछ हिस्सा मिल सकता है? जिस कन्याका आज ही विवाह हुआ हो और जिसका पति आज ही मर जाये, क्या उस कन्याको विधवा कहना चाहिए? क्या हम वैधव्यकी अतिशयताको धर्मका पद देकर महापाप नहीं करते? यदि वैधव्यको सुरक्षित रखना हो तो क्या पुरुषोंको अपने धर्मका विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है? जिसके मनको वैधव्यका अनुभव नहीं है, क्या उसका शरीर वैधव्यका पालन कर सकता है? जिस बालिकाका विवाह आज ही हुआ है, उसके मनका हाल कोई जान सकता है? उसके प्रति उसके पिताका क्या धर्म है? क्या बाप उसके गलेपर छुरी फेरकर उसके प्रति अपने कर्त्तव्यका पालन कर चुका?

वैधव्यकी पवित्रताकी रक्षा के लिए, हिन्दू धर्मंकी रक्षाके लिए और हिन्दू-समाजकी सुव्यवस्थाके लिए, मेरी नम्र रायमें, इतने नियमोंकी आवश्यकता है :

१. कोई पिता १५ सालके पहले अपनी कन्याका विवाह न करे।

२. जिस लड़कीका विवाह अबतक उक्त आयुके पहले हो चुका हो और जो १५ सालकी होने से पहले विधवा हो गई हो उसके विवाहकी व्यवस्था करना पिताका धर्म है।

३. यदि १५ सालको बालिका विवाहके एक सालके भीतर विधवा हो जाये तो माता-पिताको चाहिए कि वे उसे फिर विवाह कर लेनेके लिए उत्साहित करें।