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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्तरात्मा या धर्मका विषय बनाने की जरूरत नहीं रहती। साधन भी इतने आवश्यक और महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं कि उनका त्याग मृत्युके समान हो जाये। फेफड़े श्वास लेने और जीवनको कायम रखने के साधन हैं; वे स्वयं जीवन नहीं हैं। फिर भी जहाँ फेफड़े नष्ट हुए कि जीवनका भी नाश ही समझिए। इसी तरह असहयोग भी एक साधन ही है। पर सवाल यह है कि १९२० में तजवीज किया गया असहयोग ही हमारे उद्देश्यकी सिद्धिका एकमात्र उपाय है या नहीं? कांग्रेसने स्वीकार किया था कि यही एकमात्र उपाय है। पर कांग्रेस अमुक समय के लिए अपने प्रतिनिधियोंके मतका प्रतिनिधित्व ही करती है। कितने ही लोग यह जरूर मानते हैं कि असहयोगके प्रस्तावको एकमात्र साधन मानना एक भूल थी। दूसरे कितने ही लोगोंकी यह धारणा है कि असहयोग एकमात्र नहीं, अनेकोंमें एक साधन है और उसके साथ दूसरे साधनों से भी काम लेनेकी जरूरत थी। फिर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी श्रद्धा असहयोगपर तो नहीं थी पर जिन्होंने बहुमतको शिरोधार्य करके और यह मानकर कि कांग्रेस के निर्णय आदेशरूप हैं और सिद्धान्त तथा व्योरेकी छोटी-बड़ी बातों में भी वे अल्पमतवालों पर बन्धनकारक हैं, असहयोगको स्वीकार किया था। फिर कितने ही लोग ऐसे हैं जो आजतक उसी रायपर कायम हैं कि १९२० की धारणाके अनुसार आज भी असहयोग ही हमारे ध्येयकी सिद्धिका एकमात्र साधन है। मैं इस अन्तिम वर्ग में हूँ। मेरा यह विनम्र कर्त्तव्य होगा कि समय-समयपर यह दिखाता रहूँ कि असहयोग ही एकमात्र उपाय क्यों है। पूर्वोक्त पत्रलेखक निस्सन्देह मुझसे विपरीत विचार रखनेवाले वर्ग में हैं।

मैं कई बार कह चुका हूँ कि किसी भी सिद्धान्त के समर्थकोंको यह दावा करनेका अधिकार नहीं कि केवल हमारा ही सिद्धान्त सही है। हम सबसे भूलें हो सकती हैं और हमें प्रायः अपने विचार बदलने पड़ जाते हैं। भारत जैसे विशाल देश में हरएक प्रामाणिक विचार के लिए स्थान अवश्य होना चाहिए। अतएव, हमारा खुद अपने प्रति तथा दूसरेके प्रति कमसे कम इतना कर्त्तव्य अवश्य है कि हम अपने विरोधियोंके विचारोंको समझें और यदि उन्हें स्वीकार न कर सकें तो भी उनका उतना ही आदर करें जितना हम उनसे अपने विचारोंके आदरकी उम्मीद रखते हैं। यह दृष्टिकोण स्वस्थ सार्वजनिक जीवनकी एक आवश्यक कसौटी है। और इसी कारण इसीपर स्वराज्य-सम्बन्धी हमारी पात्रता अवलम्बित है। यदि हमारे अन्दर उदारता और सहिष्णुता न हो तो हम अपने मतभेदों का निपटारा शान्तिके साथ कभी कर ही नहीं सकते। तब हमें हमेशा तीसरेसे मध्यस्थता करानी पड़ेगी जिसका अर्थ हैं, हमें किसी बाहरी ताकतका प्रभुत्व स्वीकार करना होगा। अतएव मैं पाठकोंसे अनुरोध करता हूँ कि वे पत्रलेखकके विचारोंको उसी प्रकार आदरकी दृष्टिसे देखें जैसे कि मैं उन्हें देखता हूँ और यदि पाठक पत्रलेखक के विचारोंके हों तो वे मेरी असहमतिको बरदाश्त करें।

मेरी धारणाके अनुसार तो विद्यालयों और अदालतोंका बहिष्कार सफल भी हुआ है और असफल भी। बिलकुल तो नहीं, पर अधिकांशमें उसे असफल इसलिए कह सकते हैं कि विद्यालयों और अदालतोंमें जाना इस हदतक बन्द नहीं हुआ कि