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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो वे अपने किलों और अपनी तोपोंकी बदौलत ही अपने-आपको सुरक्षित समझ पाते हैं। इसके विपरीत हम भारतीय लोग यह आशा करते हैं कि हम अपने आचरणसे हर अंग्रेजको यह दिखा देंगे कि वह मशीनगनके आश्रय में बैठकर अपने-आपको जितना सुरक्षित मानता है, उतना ही सुरक्षित वह भारतके सुदूरतम प्रदेशमें भी है।

स्वराज्यसे आपका अभिप्राय क्या है?

जैसे कनाडा, दक्षिण आफ्रिका और आस्ट्रेलिया साम्राज्यमें पूरी हिस्सेदारीका उपभोग करते हैं वैसे ही भारत साम्राज्य के दूसरे समस्त भागोंके साथ पूरी साझेदारीका उपभोग करे। जबतक हमें समस्त अंग्रेजी उपनिवेशोंमें जाति, वर्णं अथवा धर्मका भेदभाव किये बिना, सम्राट्के समस्त प्रजाजनोंके पूर्ण नागरिकताके अधिकार नहीं मिल जाते तबतक हमें कदापि सन्तोष न होगा।

मैंने श्री गांधीसे पूछा कि क्या कौंसिलोंके बहिष्कारमें उनका विश्वास अब भी है?

हाँ, मैं अब भी विश्वास करता हूँ कि जबतक ब्रिटेनका हृदय परिवर्तन नहीं होता और वह हमारे साथ न्यायोचित व्यवहार नहीं करता तबतक हमें कौंसिलोंमें भाग नहीं लेना चाहिए। किन्तु राष्ट्रवादी दल इस सम्बन्धमें जो कुछ कर रहा है उसपर मैं तबतक कोई मत प्रकट नहीं करना चाहता जबतक उसके नेताओंसे बातचीत न कर लूँ। मैंने उनसे बातचीत आरम्भ भी कर दी है।

जब मैंने श्री गांधीसे यह पूछा कि क्या जेलमें उनके राजनीति और धर्म- सम्बन्धी विचार बदल गये हैं, उन्होंने उत्तर दिया :

उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, बल्कि उक्त विचार दो वर्षके एकान्तवास और आत्मनिरीक्षण के फलस्वरूप पुष्ट ही हुए हैं। मैं राजनीतिमें धर्मको दाखिल करके अपने मित्रोंके सहयोग से प्रयोग करता आ रहा हूँ और मुझे विश्वास हो गया है कि इन दोनोंको एक दूसरेसे विलग नहीं किया जा सकता। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि धर्मसे मेरा आशय क्या है। यद्यपि मैं हिन्दू धर्मकी सबसे ज्यादा कद्र करता हूँ किन्तु धर्मसे मेरा अभिप्राय हिन्दू धर्मसे नहीं है, बल्कि उस धर्मसे है जो उससे भी बढ़कर है अर्थात् वह है मूलभूत सत्य, जो संसार के समस्त धर्मोका आधार-स्वरूप है और यह धर्म है—सत्यके लिए, आत्माभिव्यक्तिके लिए संघर्ष। मैं इसे सत्यबल कहता हूँ। यह धर्म मनुष्य के स्वभावका स्थायी तत्त्व है और यह अपने-आपको खोजनेका और अपने सिरजनहारको जाननेका सतत उद्योग करता रहता है। इसीका नाम धर्म है।

मैं विश्वास करता हूँ कि राजनीतिको धर्मसे अलग नहीं किया जा सकता अहिंसात्मक असहयोग—इन दो शब्दोंमें मेरी राजनीति व्यक्त की जा सकती है। और असहयोगकी जड़ें संसारके सभी धर्मों में समाई हुई हैं। ईसाने स्क्राइब और फैरीसियोंके साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया था। बुद्धने निर्भयतापूर्वक अपने युगके घमण्डी पुजारियोंके साथ सहयोग करनेसे इनकार कर दिया था। मुहम्मद, कनफ्यूशियस और हमारे अधिकतर महान् धर्म-शिक्षक असहयोगी हुए हैं। मैं तो केवल विनम्र भावसे उन्हीं के पद चिह्नोंपर चलने का प्रयास कर रहा हूँ।