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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अमल करके देखें। मैंने कहा कि ये सुधार इस बात के चिह्न हैं कि सरकार अपनी पिछली भूलोंके लिए सचमुच दुःखी है। जब महायुद्ध शुरू हुआ तब मैं सैनिकोंकी भरती के लिए सभाओं में जगह-जगह जाकर भाषण देता था, क्योंकि मेरा खयाल था कि सरकारने हमें जो देनेका वचन दिया है उसे वह सचमुच देना चाहती है। मैंने सोचा कि यह शुरुआत छोटी जरूर है; परन्तु मैं प्रतीक्षा करूँगा और देखूँगा। मैं इस संकीर्ण द्वारके अन्दर घुस सकने के लिए कुछ दब जाऊँगा, झुक जाऊँगा। परन्तु बादकी घटनाओंसे मेरे विचार बदल गये। उसके बाद ही पंजाबमें अत्याचार किये गये और खिलाफतका मसला उठा, और अन्तमें सरकारने दमनकी कार्रवाइयाँ कीं; और अब तो मैं इन सुधारोंपर विश्वास ही नहीं कर सकता। ये सुधार एक धोखेकी टट्टी थे; ये हमारे कष्टोंको लम्बे समयतक बनाये रखनेके भ्रामक साधन मात्र थे। इसीलिए तो मैं इस सरकारको राक्षसी कहता हूँ और उससे किसी भी प्रकार सहयोग करने के लिए तैयार नहीं हूँ।

असहयोगसे बात चलते-चलते बहुत स्वाभाविक ढंगसे विलायती चीजोंके बहिष्कार तथा महान् खादी आन्दोलनपर होने लगी। इस समय महात्माजीका चेहरा चमक उठा, उनकी आँखें उत्साहसे दमकने लगीं।

गांधीजीने कहा :

मेरी जो भी योजनाएँ हैं, कमजोरियाँ या जिद हैं—आप उन्हें चाहे किसी भी नामसे पुकारें—उनमें खादी मुझे सबसे अधिक प्रिय है।

उन्होंने अपने कन्धेपर पड़े, घरके कते सूतके बने मोटे शालको छूते हुए कहा :

यह पवित्र वस्तु है। आप सोचिए कि खादीका अर्थ क्या है। आम अकाल-पीड़ित क्षेत्रोंमें हजारों, लाखों परिवारोंकी कल्पना करें। जब अकाल पड़ता है तब वे मुसीबत में फँस जाते हैं; वे लाचार हो जाते हैं। वे अपने घरोंमें कुछ नहीं करते—कुछ कर भी नहीं सकते—वे प्रतीक्षा करते रहते हैं और मर जाते हैंहै। यदि मैं संकटसे घिरे हुए इन घरोंमें चरखेका प्रवेश करा सकूँ तो उन्हें अपने प्राणोंसे हाथ न धोने पड़ेंगे। तब वे खादी तैयार करके उसकी बिक्रीसे इतना धन कमा सकेंगे जिससे उनके दुर्भिक्ष के दिन कट जायें।

गांधीजीने अपने शालपर पुनः स्नेहपूर्वक धीमे-धीमे हाथ फेरते हुए कहा :

यह खुरदरा कपड़ा मुझे जापानके नरम-नरम रेशमी कपड़ोंसे भी ज्यादा प्यारा और बढिया लगता है। इसके द्वारा में अवश्य ही अपने करोड़ों गरीब और भूखे देशवासियोंके अधिक समीप पहुँचा हूँ। आप जो वस्त्र पहने हुए हैं उन्हें देखें। जब आप यह कपड़ा खरीदते हैं तब आप कारीगरोंको एक या दो आने देते हैं परन्तु छः या सात आने पूंजीपतियोंकी जेबमें डालते हैं। अब आप जरा मेरे कपड़ोंकी ओर ध्यान दें। इस कपड़ेपर मैं जो भी पैसा खर्च करता हूँ वह सीधा गरीबोंको, बुनकरोंको, कतैयों को और धुनियोंको मिलता है। इसमें से एक पैसा भी अमीरोंके हाथमें नहीं पहुँचता। इस बात की अनुभूतिसे मुझे स्वर्गीय आनन्दका अनुभव होता है। यदि मैं ऐसा कर सकूँ कि भारत के प्रत्येक घरमें चरखा चलवा सकूँ, तो इस जीवनकी मेरी साध