५२. पत्र : मणिलाल गांधीको
साबरमती जेल
१७ मार्च, १९२२
कल सजा दे दी जायेगी। उसके बाद पत्र लिखनेकी मेरी बहुत कम इच्छा होगी।
तुम अपने शरीरकी तरफसे सावधान रहकर कहीं भी अच्छा काम करो तो मुझे सन्तोष ही रहेगा। मेरे जेल में रहते हुए तुम्हारा यहाँ आना जरूरी नहीं है। अब चूँकि तुमने आई॰ ओ॰[२] को अपना ही बना लिया है, इसलिए उसके अच्छी तरह चल निकलनेपर ही तुम यहाँ आ सकते हो, ऐसा मेरा खयाल है। यहाँसे तुम्हारे पास किसी को भेजना सम्भव दिखाई नहीं पड़ता। अच्छे आदमियोंकी ज्यादातर यहाँ जरूरत है।
जान पड़ता है कि तुमने अभीतक वहाँका हिसाब नहीं भेजा। न भेजा हो तो भेज देना।
इमाम साहबकी[३] पत्नी हाजी साहिबा पोरबन्दर पहुँचते-पहुँचते एकाएक दिलका दौरा होनेसे नहीं रहीं। इमाम साहब दुःखमें डूब गये हैं। कल वे मुझसे मिलकर गये।
अब तुम्हारी अपनी बात। नायडू और रामदास[४], दोनोंका कहना है कि मैं तुम्हारी शादी की बाबत तुम्हें लिखूँ। उनका खयाल है कि भीतर-ही-भीतर तुम विवाहकी इच्छा करते हो, किन्तु जबतक मैं तुम्हें बन्धन-मुक्त नहीं करता, तुम विवाह नहीं करोगे। मैं तुम्हें अपने बंधन में मानता ही नहीं। यही ठीक जान पड़ता है कि सभीकी आत्मा अपने-अपने बन्धनमें रहे। हम ही अपने मित्र या शत्रु हैं।
बन्धन तुम्हींने स्वीकार किया है और उससे मुक्ति भी तुम्हीं पा सकते हो।
मेरी ऐसी धारणा है कि हमें जो शान्ति मिल सकती है, वह हमारे अपने द्वारा लगाये गये बन्धनों के माध्यमसे ही मिल सकती है। यही मानना चाहिए। तुम जबतक विवाहकी बात नहीं सोचते, तबतक तुम स्वयंकृत पापोंसे मुक्त हो। तुम्हारा यह प्रायश्चित्त तुम्हें पवित्र बनाये हुए है। तुम दुनियाके सामने मनुष्यके रूपमें खड़े रह सकते हो। जिस रोज तुम शादी कर लोगे, उसी दिन तुम्हारा तेज घट जायेगा। उसमें तो सुख है ही नहीं, यह मुझसे जान लो। इसमें सन्देह नहीं कि जिस हदतक बा मेरी सुहृद है, उस हदतक मुझे सुख है। किन्तु ऐसा सुख तो मुझे तुम सभी लोगों और उन बहुत-से स्त्री तथा पुरुषोंसे मिल जाता है जो मुझसे स्नेह करते हैं या मेरी सेवा करते हैं। मुझे अधिक सुख तो उन स्त्रियों या पुरुषोंसे होता है जो मुझे