पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/१४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

{आठ


कुछ अन्य बातोंको लेकर भी अधिकारियोंके साथ गांधीजीको लिखा-पढ़ी करनी पड़ी और उन्होंने अधिकारियोंसे अधिक समझदारी बरतने की अपील की। जिन राजनीतिक कैदियोंको कठोर कारावासकी सजा दी गई थी, गांधीजीने चाहा कि उनको भी वे विशेष सुविधाएँ दी जायें जो उन्हें दी जा रही हैं। अब्दुल गनी नामक कैदीके विषयमें उन्होंने प्रार्थना की कि उसे उसी तरह अपने मनकी खुराक दी जाये जिस तरह स्वयं उन्हें दी जा रही है। मलशीपेटाके कैदियोंकी ओरसे उन्होंने मानवताके आधारपर जेलके प्रशासनमें बड़ी व्यग्रताके साथ हस्तक्षेप करनेका प्रयत्न किया। उन्होंने इन कैदियोंसे मिलने की अनुज्ञा चाही जिसका उद्देश्य यह था कि वे उन्हें जेलका अनुशासन माननेके विषयमें समझायेंगे और अधिकारियोंको अनुशासनकी सजाके रूपमें बेंतकी सजा आदि देनेका मौका न आने देंगे। इस सम्बन्ध में अधिकारियोंके नाम लिखे गये एक पत्र में गांधीजीने इस बातकी ओर भी इशारा किया कि यदि बेंतकी सजा दुबारा देने की परिस्थिति न आनेकी दिशामें उन्हें अपने साथियोंपर प्रभाव डालनेका अवसर नहीं दिया जाता, तो वे उपवासतक कर सकते हैं। गवर्नरने इसे एक धमकीके तौरपर लिया, किन्तु बादमें उसने गांधीजीकी बात मान ली और कमसे-कम इस मामले में हल अच्छा ही निकला।

अधिकारियोंके साथ की जानेवाली यह लिखा-पढ़ी बहुत प्रचुर थी, किन्तु गांधीजी मुख्य रूपसे यही नहीं करते रहे। जेलमें इच्छा न रहते हुए भी उन्हें जो अवकाश मिल गया था, उसका उपयोग उन्होंने मुख्यतया अध्ययन करके अपनी बौद्धिक आवश्यकताओंको पूरा करने में किया। १९२२-२३ के दौरान जेलमें वे जो दैनन्दिनी लिखते रहे, उसमें अधीत पुस्तकोंका उल्लेख है और उससे विषयोंकी जो विविधता, अध्ययनकी गति और उसकी जो गहराई सूचित होती है, वह विश्वविद्यालयके किसी परिश्रमी विद्यार्थीके लिए भी ईर्ष्याका विषय हो सकती है। आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रन्थोंके अतिरिक्त इस सूचीमें "हिस्ट्री ऑफ द डिक्लाइन ऐंड फॉल ऑफ द रोमन एम्पायर", किपलिंगकी "द फाइव नेशन्स", "बैरक रूम बैलेड्स" और "द सैकंड जंगल बुक", जूल्स वर्नकी "ड्रॉप्ड फ्रॉम द क्लाउड्स", मैकॉलेकी "लेज ऑफ एन्शेंट रोम" और शॉकी "मैन ऐंड सुपरमैन" जैसी अप्रत्याशित पुस्तकोंके नाम भी देखनेको मिलते हैं।

जेलमें गांधीजीको दक्षिण आफ्रिकामें सत्याग्रहका इतिहास भी सोचकर लिखनेका समय मिल गया। जेलसे बाहर आते-आते तक वे उसके लगभग ३० अध्याय लिख चुके थे, जो बाद में क्रमशः 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' में प्रकाशित होते रहे।

जेलमें उनकी लिखने और पढ़नेकी विपुलताको देखकर कोई यह न समझे कि वे एकान्तवास ही करते रहे। लोगों में और लोगोंके कामों में उन्हें सहज दिलचस्पी थी और इसलिए उन्होंने जेल-जीवनको आँख खोलकर देखा, कान खोलकर सुना और यह सब इतनी बारीकीसे कि रिहाईके बाद उन्होंने जेल अधिकारियों, वार्डरों, सफैयों और कारावासके सर्वसाधारण वातावरणको लेकर विस्तृत संस्मरण लिखे।

जो व्यक्ति सदा दूसरोंकी चिन्तामें डूबा रहता था, कारावासके समयका उसका चित्र उस गम्भीर बीमारीकी बातका उल्लेख किये बिना पूरा नहीं हो सकता, जिसके