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यदि हम असहयोगके समस्त अंगोंका विकास करनेमें लग जायें तो हम शान्तिका पाठ खुद-ब-खुद सीख सकते हैं, क्योंकि उन अंगोंमें तीन बड़ी रचनात्मक प्रवृत्तियाँ हैं—खादी, अस्पृश्यता निवारण और समस्त कौमोंकी एकता। क्या कोई स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों शान्तिके महत्त्वको पूरी तरह पहचाने बिना भी सचमुच एकदिल हो सकते हैं? यदि ये दोनों परस्पर एक दूसरेकी सहायता के लिये शान्ति रख सकें तो दोनों मिलकर हिन्दुस्तानके उपद्रवी वर्गीको भी प्रेमसे जीत सकते हैं। जो यह मानते हैं कि उपद्रवी वर्गोंको प्रेमसे वशमें नहीं किया जा सकता, वे यह भी नहीं मान सकते कि हिन्दुओं और मुसलमानोंमें सच्ची मित्रता हो सकती है। यदि ये दोनों बड़ी कौमें परस्पर एक दूसरेके प्रेमके वशमें नहीं होतीं तो मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि एक समय ऐसा आयेगा जब ये दोनों एक दूसरे से अवश्य ही जी भरकर लड़ेंगी; और लड़नेके बाद जब इन दोनोंका गर्व दूर हो जायेगा तभी ये दोनों मिलकर किसी तीसरेको हरायेंगी। यदि दोनोंकी लड़ाईमें एक हार गई तो उसके नसीब में गुलामी ही लिखी है। इस प्रकारके विचारोंसे हमें सारी समस्याओंकी कुंजी हाथ लग जाती है।

हिन्दुओं और मुसलमानोंका इतनी बड़ी संख्या में हिन्दुस्तानमें मिलना, उनका किसी तीसरी सत्ता का गुलाम बनना और दोनोंका जाग्रत होना—इन सब बातोंमें जो अर्थ निहित है अगर कोई उसे समझना चाहे तो बड़ी आसानीसे समझ सकता है। मैं तो इसमें प्रतिक्षण ईश्वरीय आदेश देखता हूँ। शान्तिमें दोनोंकी जय है और अशान्ति में दोनों का क्षय।

खादी-प्रचार

भाई रामजी हंसराज अमरेलीसे पत्र लिखकर बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब हाथकते सूतकी खादी नहीं मिलती थी। अब समय ऐसा आ गया है जब खादी तो बहुत है लेकिन उसे पहननेवाला कोई नहीं मिलता और फिर सबसे अधिक दुःखद बात यह है कि सूत कातनेवाली बहनें, पूनियाँ बनानेवाले पिंजारे और हथकता सूत बुननेवाले जुलाहे स्वयं खादी नहीं पहनते।

ऐसी स्थिति के बावजूद हमें स्वराज्य चाहिए; वह कैसे मिल सकता है? काठियावाड़ जैसे प्रदेशमें खादी पहननेवाले न मिलें, यह बात कैसी लगती है? में अपनी पकायी हुई रोटी स्वयं न खाकर बेच दूँ और बाजारसे रोटी लाकर खाऊँ इससे उलटा न्याय और क्या हो सकता है? क्या स्वयं मुझे अपने कार्य की कीमत नहीं आँकनी चाहिए?

काठियावाड़के सेवक इस बारेमें क्या कर रहे हैं? क्या उनके लिए केवल यही एक प्रश्न काफी नहीं है कि वे खादी तैयार करें और पहनें? यदि वे अन्य कार्योंको छोड़ दें और यहीं एक कार्य करें तो सब बातें खुद-ब-खुद ठीक हो जायेंगी। छब्बीस लाख की आबादी यदि प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति दस रुपयेकी आय देने योग्य कातने, पींजने और बुननेका काम करे तो भी दो करोड़ साठ लाख रुपयेका काम हुआ। यह काम प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति के हिसाब से दो पैसेसे भी कमका होता है। लेकिन जिस तरह

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