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टिप्पणीयाँ

समाप्त करनेसे पूर्व में उस अत्यन्त निर्दयतापूर्ण आरोपका खण्डन करना चाहता हूँ जो मुझपर और सम्मेलनपर लगाया गया है। व्यक्तिगत रूपसे में तो दर्शक मात्र था और सिर्फ बहसके नियामकका फर्ज निभा रहा था। वहाँ जितने भी प्रस्ताव स्वीकार किये गये अथवा ठुकराये गये उनमें एक भी ऐसा नहीं था जिसकी शब्दावलीके साथ मेरी पूर्ण सहमति हो। मैं लोगोंसे एक ऐसा संशोधन मनवानेकी कोशिश कर रहा था जो सबको स्वीकार हो सके, लेकिन अकोला सम्मेलनके बारेमें कोई कुछ भी क्यों न कहे, आपको तो कमसे कम इस बातपर विश्वास करना चाहिए कि यह सम्मेलन बुलानेका निश्चय जुलाई अथवा अगस्त में ही हो चुका था और इसीलिए साधारण रूपसे ही यह इस समय हुआ था, और यह कहना बड़ी ही निर्दयताकी बात होगी कि हम इसलिए सम्मेलनमें शरीक हुए कि दमन चक्रके कारण नेताओंकी संख्या घटती देखकर अपने विचार प्रकट करने का, अथवा उससे भी जघन्य बात यह होगी कि अपनी जान बचानेका हम इसे अच्छा अवसर समझते थे।

श्री केलकरके कथनके एक-एक शब्दका मैं हार्दिक समर्थन करता हूँ। याद रहे, यह पत्र उस समय लिखा गया था जब वे यह समझते थे कि उनको गिरफ्तार किया जानेवाला है।

खादी बेचना

कलकत्ते में श्रीमती वासन्तीदेवी दास[१] तथा उर्मिलादेवीने[२] सड़कोंपर और घर-घर जाकर खादी बेचना आरम्भ किया है। दूसरे प्रान्तोंमें भी तुरन्त ही इसका अनुकरण किया गया है। श्रीमती सरलादेवी चौधरानी लिखती हैं:

मैं अभी शहर में जाकर यह तजवीज करनेवाली हूँ कि ४० स्त्रियाँ खादी बेचने के लिए भेजी जायें। दो-दो स्त्रियोंका एक दल रहे और हर दलके साथ दो-दो स्वयंसेवक हों। इस तरह ये २० दल २० भिन्न-भिन्न रास्तोंपर भेजे जायें।

मद्रासमें भी ऐसी ही व्यवस्था हो रही है। मेरी रायमें सूत कातने के अलावा स्त्रियोंके लिए इससे अच्छा कोई धन्धा नहीं कि खादीकी बिक्री करके स्वयं उसका प्रचार करें। मिथ्याभिमान तथा संकोचशीलताको दूर करने की तैयारीका यह बहुत बढ़िया साधन है। और यह पुलिसको भी बिना खटकेकी खासी चुनौती है कि यदि उसकी हिम्मत हो तो गिरफ्तार कर ले। परन्तु यह रिवाज प्रचलित तभी हो सकता है जब अच्छे-अच्छे घरोंकी प्रौढ़ स्त्रियाँ इसका सूत्र संचालन करें। किसी प्रकारके दिखावेकी जरूरत नहीं। यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं है कि बेजा दबाव डालकर उनसे खादी न खरीदवाई जाये। लोगोंको तंग करनेकी जरूरत नहीं है। हमारा

  1. चित्तरंजन दासकी पत्नी।
  2. वासन्ती देवीकी बहन।