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टिप्पणीयाँ

करें। उसके लिए हमें झगड़ने का कोई प्रयोजन नहीं। और न हमें चिन्ता ही करनेकी जरूरत है। हम तो बस सच्चे स्त्री-पुरुषोंकी तरह अपना फर्ज अदा करें। फिर हम देखेंगे कि हर बात हमारे अनुकूल हो जायेगी और हर आदमी हमारी तरफ झुक जायेगा।

गोलमेज परिषद्

सरकार क्या सोच रही होगी, इस बातकी छानबीनके लिए 'यंग इंडिया'में बहुत कम लिखा जाता है। उसकी अटकलबाजी तो व्यर्थ ही है। किन्तु चूँकि आजकल समाचारपत्र इस सम्मेलनके विषयमें चर्चा कर रहे हैं तथा उसके विषयमें वाद-विवाद करते हुए अपनी-अपनी राय जाहिर कर रहे हैं, मुझे भी अब यह उचित मालूम हो रहा है कि भारतमें चारों ओर जो यह नाटक खेला जा रहा है उसके नायककी मानसिक स्थितिका कुछ विवेचन 'यंग इंडिया'में भी किया जाये। मेरा तो खयाल यह है कि सम्मेलनका होना तबतक निरर्थक ही है, जबतक कि वाइसरायके दिमागसे यह भ्रम दूर नहीं हो जाता कि असहयोग तो कुछ गुमराह उत्साही लोगोंतक ही सीमित है। यदि उनकी यह इच्छा हो कि उनके साथ सहयोग किया जाये और देशमें शान्ति-सन्तोष फैले, तो उन्हें चाहिए कि वे असहयोगियोंको सन्तुष्ट करें—उनसे सुलह करें उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि असहयोग कोई रोग नहीं है, यह तो एक रोगका मुख्य लक्षण है। खास रोग तो भारतकी जनतापर जो तीन तरहसे मर्माघात किया गया है, वही है और जबतक उस रोगकी जड़ नहीं काटी जायेगी तबतक इन ऊपरके सब उपायोंसे रोगीको जरा भी चैन नहीं मिलनेका। खिलाफत और पंजाब के अन्यायोंका उचित प्रतिकार और जनताके चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा तैयार की गई योजनाके अनुसार स्वराज्यकी माँग पूरी करना, ये बातें यदि छोड़ दी जायें तो भले ही दमन किसी प्रकारके निपटारेका एक आसान और सीधा साधन दिखाई दे। हाँ, में बिलकुल मानता हूँ कि कोई भी वाइसराय परिस्थितिको भाग्यके भरोसे छोड़कर नहीं बैठ सकता। मैं मानता हूँ कि जिस बातके लिए सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया गया है उसे मिटानेको यदि वे तैयार नहीं हैं तो उन्हें सशस्त्र विद्रोहकी तरह ही सविनय अवज्ञाको भी दबाना ही होगा। सत्यके कोरे सिद्धान्तका तबतक कुछ भी महत्त्व नहीं रहता जबतक वह, उन मनुष्योंमें जो उसकी हिमायतके लिए अपने प्राणोंको होम करने को तैयार रहते हैं, मूर्त रूप नहीं ग्रहण कर लेता। हमपर होनेवाले अन्याय और अत्याचार दुनियामें अभीतक इसीलिए टिके हुए हैं कि हम उस सत्यके सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। अपने इस दावेको सिद्ध करनेका एक ही मार्ग है। वह यह कि हम अपने जिम्मे डाले गये कामके लिए हर तरहके कष्ट सहनेको तैयार रहें। और हम तो इस उच्च कर्त्तव्यकी साधनाकी कई मंजिलें तय भी कर चुके हैं। किन्तु मैं यह नहीं कह सकता कि हम इस बातका कोई निर्णायक प्रमाण अभी दे पाये हैं। यदि कैदमें कोड़ोंकी मार पड़े और दूसरी अनेक प्रकारकी यातनाएँ सहनी पड़ें, तो कौन कह सकता है कि हम जेलसे भी न घबड़ा उठेंगे? कौन जानता है कि फाँसी पर लटक जाने के लिए हममें से कितने आदमी तैयार हैं?