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वक्तव्य : गोलमेज परिषद् के सम्बन्धमे

बाद प्रयागमें जो पूर्ण हड़ताल हुई थी, उसके लिए वहाँ लोगोंको किसने डराया-धमकाया था ? बल्कि कहा जाता है कि उलटे सरकारी नौकरोंने ही दुकानदारों और गाड़ीवालोंपर हड़ताल न करनेके लिए बेजा दबाव डाला । फिर लॉर्ड महोदय फरमाते हैं :

यदि हम यह मानें कि इन घटनाओंसे यही सूचित होता है कि लोग सचमुच परिस्थितियों में सुधार चाहते हैं तो उसके लिए अनुकूल वातावरण होना आवश्यक है । दूसरे शब्दों में यों कहें कि किसी भी बैठकके लिए दोनों ओरसे शान्ति होना पहली आवश्यक बात है, यह तो सबको मानना ही पड़ेगा । यदि असहयोगके मुख्य-मुख्य नेता निश्चित आश्वासन दें कि स्थितिकी यह व्याख्या बिलकुल सही है, तब में भी कहूँगा कि वातावरण अनुकूल होता दीख रहा है । और सरकारको अपनी बातपर पुनर्विचार करना ठीक होगा । लेकिन बातोंके अनुरूप काम भी होना चाहिए । यदि मुझे सिर्फ इतना हो इत्मीनान हो जाये कि आम तौरपर लोग सम्मेलनके लिए इच्छुक हैं और असहयोगके प्रधान नेता-गण उसके अनुसार बरतने को तैयार हैं तो मैं अपनी सरकारसे यह सिफारिश करूँगा कि इस बदली हुई स्थितिके अनुसार कदम उठाये जायें ।

यह कथन अत्यन्त भ्रमोत्पादक है । इसमें जहाँ-जहाँ “असहयोगके नेता " शब्द आया है वहाँ-वहाँ यदि “सरकार" शब्द रख दिया जाये और यह सारा वक्तव्य किसी असहयोगी के मुँह से निकले तो उससे सच्ची स्थितिका ज्ञान हो सकेगा । सच पूछिए तो असहयोगियोंको तो कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं है; क्योंकि उन्होंने किसी भी मामले-में झगड़ेकी स्थिति पैदा नहीं की है । वे तो जरूरत से ज्यादा सावधानीसे काम ले रहे हैं । लोग आक्रामक सविनय अवज्ञा शुरू करने के लिए कितने उत्सुक थे ! किन्तु बम्बईके उपद्रवोंके' कारण उनकी इच्छाओंको जबरदस्ती दबाना पड़ा । लेकिन आजकी स्थिति-में तो "सविनय अवज्ञा" मुहावरेका प्रयोग भी बहुत गलत अधर्म में हो रहा है । मैं दावे के साथ कहता हूँ कि असहयोगी लोग जो कुछ आज कर रहे हैं, ऐसी परिस्थितियोंमें कल हर सहयोगी भी वही करेगा । जब भारत सरकार या प्रान्तीय सरकार हमारे राजनीतिक अस्तित्व और आन्दोलनको, चाहे वह कितना भी शान्तिमय क्यों न हो, नष्ट करनेपर तुल जाये, तब क्या हमें अपनी शक्ति-भर ऐसे प्रयत्नका हर सम्भव वैध तरीकेसे विरोध नहीं करना चाहिए ? मुझे तो इससे अधिक वैध और स्वाभाविक कोई बात नहीं दिखाई देती कि हम अपने स्वयंसेवक- संगठनोंकी प्रवृत्ति हिंसा-से मुक्त रखते हुए जारी रखें और साथ ही सार्वजनिक सेवा भी करते रहें और ऐसा करनेका जो फल भोगना पड़े, उसे खुशीसे भोगें । सरकारी ज्यादतियोंके मुकाबले अपने बुनियादी अधिकारोंकी रक्षा करनेका दुस्साहस करनेके कारण सैकड़ों जवानों तथा बड़े-बूढ़ोंका, अपने बचाव के लिए कुछ भी कहे बिना, कोई शिकायत किये बगैर चुपचाप जेल चले जाना क्या उनकी कानूनका आदर करनेकी प्रवृत्तिका काफी परि-

१. १७ नवम्बर, १९२१ ।