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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस बहादुरीको अवश्य देखेगी और अपना सुधार करेगी । पुलिस कायरको मारकर अत्याचारी बनती है । वह वीर पुरुषको मारकर अवश्य भयभीत होती है । मुझे लाहौरसे एक पत्र प्राप्त हुआ है । उसमें एक मित्र लिखते हैं कि युवक तथा शक्तिशाली मनुष्य भी जब उसका प्रतिरोध नहीं करते तो इससे वह डर जाती है । उनको मारनेकी उसकी हिम्मत नहीं होती, हो ही नहीं सकती । मुझे तो ऐसे बहुतसे व्यक्तिगत अनुभव हुए हैं । यह निर्भीकता किसीके सिखानेसे नहीं आती । यह तो स्वयं अभ्याससे ही प्राप्त की जा सकती है । इसलिए मुझे पत्र लिखनेवालों को समझ लेना चाहिए कि हमारा कार्य बदमाशोंपर नियन्त्रण प्राप्त करना तो है, लेकिन अगर हम खुशामद करके उनपर नियन्त्रण प्राप्त करना चाहते हैं तो इससे "चूल्हे में से निकला, भाड़में गिरा" वाली कहावत चरितार्थ होगी । वे हमारे भाई जरूर हैं लेकिन वे रोगी हैं, उनकी हम सार-सँभाल तो करें परन्तु अपने-आपको उनके सुपुर्द न करें । हम जिस दिन पुलिसका भय छोड़ देंगे उसी दिन पुलिस हमारी मित्र बन जायेगी । पुलिसका भय छोड़ देनेका अर्थ यह नहीं कि हम पुलिसको मारें अथवा गालियाँ दें; अपितु उसका अर्थ यह है कि हम पुलिसकी मार खा लें और उसकी गालियाँ खा लें -— ठीक उसी तरह जिस तरह चित्तरंजन दासके बहादुर लड़केने मार खाई । वह पुलिसको मार सकता था । उसके सब साथी हट्टे-कट्टे और नौजवान थे । लेकिन उन्होंने सब कुछ सहन किया । गालियाँ खा लेना एक बात है । यह असहयोग है । लेकिन गालीके उत्तरमें दो गालियाँ देना सहयोग है, क्योंकि तब हम गालियाँ देनेके दोषी ठहरते हैं । गालियोंके वश होना उनकी गुलामी करना है । गालियाँ खा लेनेका अर्थ यह नहीं कि गालियाँ देनेवाला जो कुछ कहता है हम वही करें । गालियाँ खा लेनेका अर्थ है गालियाँ देनेवाले की इच्छा के वशमें न होना । यदि कोई हमसे गालियां देकर विष्णुका नाम भी जपवाये तो भी हम न जपें । गालियाँ देनेवाला यदि हमें पेटके बल रेंगने के लिए कहे तो हम सीधे तनकर चलें । वह अगर बैठनेका आदेश दे तो खड़े रहकर उसकी पिस्तौलकी गोलियाँ खायें । इस तरह वह पूर्ण पराजित ही है, क्योंकि उसका हमें झुकानेका मनोरथ पूरा नहीं हुआ । रावण सीताको अपने कन्धेपर बिठाकर तो ले गया; लेकिन सीताने उसका कहना नहीं माना । वह यद्यपि सीताका वाहन बना, तथापि उनके स्पर्शसे पवित्र न हो सका तथा अपयशका भागी हुआ । और सीता एक दुर्बल नारीसे जगदम्बा बन गई । तात्पर्य यह है कि निर्भय होकर गालियाँ खा लेना, और मार सहन कर लेना ही सच्ची बहादुरी है । जो मारके भयसे चुपचाप गालियाँ सुनता रहता है वह न तो मनुष्य होता है और न पशु । हिन्दुस्तान इस समय मर्दानगीका पदार्थ-पाठ सीख रहा है । यदि वह इसे पूरा सीख लेगा तो स्वराज्य प्राप्त कर सकेगा ।

तीन भय

श्री देशबन्धु दासके जेल जानेसे पहले उनके जो लेख प्रकाशित हुए हैं वे उनकी उन्मत्त दशा के परिचायक हैं और मननीय हैं। "मन, वचन और कर्मसे शान्ति बनाये रखें ।” "नरम दलको भी विनयसे अपनी ओर करें ।" उनके ये सब वचन अमर वचन हैं और ये वचन ऐसे समय उनके मुखसे निकले, इससे इनकी सुन्दरता और भी बढ़