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काँग्रेसकी बैठक

मात्रको तोड़कर हममें आज्ञापालन और अनुशासनकी भावना ही उद्दीप्त हो सकती है । जेल तो पक्के मुजरिम भी जाते हैं; किन्तु उससे 'स्वाधीनताका द्वार' नहीं खुल जाता । जेल तो सर्वथा निर्दोष व्यक्तियोंके ही लिए 'स्वतन्त्रताके मन्दिर' हैं । सुकरातकी फाँसीने अमरताको प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया और यों आजतक अगणित खूनी फांसी के तख्तेपर लटक चुके हैं। भला कहीं हम ऐसे हजारों लोगोंको जो नाम मात्र के लिए शान्तिप्रिय हैं पर जिनके दिलोंमें द्वेष, वैर और हिंसा भाव भरे हुए हैं, जेल भेजकर स्वराज्यको हस्तगत कर सकते हैं ?

हाँ, यदि हम शस्त्र लेकर लड़ते होते और प्रहार करते तथा प्रहार सहते होते तो बात दूसरी थी। आतंकवाद, आक्रमण और हत्या करके जेल जाने से सरकार अवश्य ही परेशान तो होगी और जब वह थक जायेगी तब सिर भी झुका दे सकती है, जैसा कि दूसरी जगहों में उसने किया है। पर आज जो लड़ाई हम लड़ रहे हैं वह ऐसी नहीं है। हमें इसमें सत्यपर अटल रहना चाहिए। पर यदि हम मानते हों कि स्वराज्य 'शक्ति- प्रदर्शन' से आ सकता है तो हमें 'अहिंसा' का त्याग कर देना चाहिए और फिर हम जैसा चाहें वैसा हिंसा-काण्ड करें। तब हमारा यह कार्य पुरुषोचित, प्रामाणिक और विचारपूर्ण होगा; संसारमें आजतक ऐसा ही होता चला आया है । उस अवस्था में हमपर कोई ढोंग और पाखण्ड रचनेका भीषण इलजाम तो नहीं लगा सकेगा ।

लेकिन अधिकांश लोगोंने मेरी यह बात न सुनी। मैंने उन्हें खूब सावधान किया, सच्चे दिलसे कहा कि यदि आप अपने ध्येयकी प्राप्तिके लिए 'अहिंसा' को अनिवार्य न मानते हों तो मेरे प्रस्तावको नामंजूर कर दीजिए । तिसपर भी उन्होंने उसमें कोई सुधार किये बिना ही उसे स्वीकार किया है । इसलिए मैं कहता हूँ कि आप अपने उत्तरदायित्वको पहचानिए। आप घर पहुँचते ही सविनय अवज्ञा शुरू करने के लिए बँधे हुए नहीं हैं, बल्कि आपको खामोशी के साथ रचनात्मक काममें लग जाना उचित है । मैं उनसे आग्रह करता हूँ कि आप फौरन संघर्ष शुरू करने सम्बन्धी चीख-पुकारकी ओर ध्यान न दें। अभी जो काम करना है वह जेल जाना नहीं, और न भाषण, लेखन और सम्मेलन-स्वातन्त्र्य ही है; बल्कि आत्म-शुद्धि, आत्मनिरीक्षण और खामोशी के साथ किया जानेवाला संगठन है। हमसे अपना आधार छूट गया है । यदि हम नहीं सँभले तो इस अगाध पानीमें डुबकियाँ लगाते हुए प्राण गँवा देंगे ।

जेल काटनेवाले देश सेवकोंकी चिन्ता निरर्थक है । मैंने तो ज्यों ही चौरीचौराका हाल सुना, उसे प्रायश्चित रूपी यज्ञकी पहली आहुति मान लिया। वे इसीलिए जेलमें गये हैं कि जनताकी सामर्थ्यसे छूटें—निस्सन्देह आशा यही थी कि स्वराज्य-संसदका पहला काम होगा जेलोंके फाटक खोलना । परन्तु परमात्माकी मरजी कुछ और ही थी । हम बाहर रह जानेवालों ने कोशिश तो की; लेकिन नाकामयाब हुए। अब तो पूरी सजा भोगने से ही काम चलेगा। जो लोग भूलसे, भ्रमसे अथवा इस आन्दोलनके सम्बन्धमें किसी गलत खयालके कारण जेल चले गये हों वे माफी माँगकर या दरख्वास्त देकर रिहा हो सकते हैं। इस छँटनीसे आन्दोलनका बल ही बढ़ेगा, घटेगा नहीं। जिन लोगोंका दिल मजबूत है वे तो इस अनायास प्राप्त अधिक कष्ट सहनके अवसरसे