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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  आज मैं पहलेसे कहीं अधिक दुखी और शायद अधिक समझदार हूँ। मैं देखता हूँ कि हमारी अहिंसा सतही है। हमारे मनोंमें क्रोधकी आग सुलग रही है। सरकार अपने विवेकहीन कृत्यों द्वारा इस क्रोधाग्नि में मानो घी डाल रही है। प्रायः ऐसा मालूम होता है कि सरकार भारत-भूमिको खूनसे लथपथ, आगकी ज्वालाओंसे धधकती हुई और लूट-मारसे संत्रस्त देखना चाहती है, ताकि उसे फिर यह दावा करनेका मौका मिल जाये कि इन उपायों को दबा देनेकी सामर्थ्य केवल उसीमें है ।

अतएव ऐसा मालूम होता है कि हम केवल असहाय अवस्थाके कारण अहिंसाको अपना रहे हैं; कुछ ऐसा ही दिखाई देता है कि हम अपने दिलोंमें इस अभिलाषाको पोषित कर रहे हैं कि मौका पाते ही बदला लें ।

क्या किसी निर्बल व्यक्ति द्वारा जबरदस्ती अपनाई गई दिखाऊ अहिंसासे सच्ची और स्वेच्छा-प्रेरित अहिंसा उत्पन्न हो सकती है ? तो क्या मैं जिस प्रयोगमें लगा हुआ हूँ वह व्यर्थकी चीज है ? यदि ज्वाला धधक उठी; स्त्री, पुरुष, बालक सबकी जानोंके लाले पड़ गये और हम एक दूसरेका गला काटनेपर उतारू हो गये तब क्या स्थिति होगी ? ऐसी भीषण स्थितिमें यदि मैं आमरण उपवास करता हुआ मर भी जाऊँ तो उससे क्या बननेवाला है ?

तो फिर करना क्या चाहिए? क्या यह कि झूठ बोलूं और उस बातको अच्छा कहने लगूं जिसे मैं बुरा समझता हूँ ? यह कहना कि बनावटी और जबरदस्तीके सहयोग के अन्दरसे सच्चा और स्वेच्छा-प्रेरित सहयोग पैदा होगा, ऐसा कहने के बराबर है कि अँधेरेसे प्रकाशका प्रादुर्भाव होगा ।

सरकारसे सहयोग करना वैसा ही दुर्बलतापूर्ण और पापमय है जितना कि व्यवहार-नियम के तौरपर स्थगित रखी गई हिंसाकी ओर झुकना ।

इस कठिनाईसे पार पाना लगभग असम्भव है । यह बात मेरे दिलमें दिनोंदिन साफ होती जा रही है कि यह अहिंसा सिर्फ एक सतही चीज है और इसलिए बार-बार गलतियाँ होंगी और मुझे बार-बार पीछे हटना होगा; उसी प्रकार जैसे किसी मार्ग- विहीन वन-प्रान्तर में भटकता राही कभी रुकता है, कभी लौट पड़ता है, कभी ठोकर खाकर गिरता और चोटें खाता है । यहाँतक कि वह लहूलुहान हो जाता है ।

मैंने सोचा था कि लोग थोड़े-बहुत निराश और नाखुश तो होंगे ही, पर इतने भीषण विरोधका मैंने अनुमान नहीं किया था । यह साफ दिखाई पड़ गया कि कार्यकर्तागण कोई भी गम्भीर रचनात्मक कार्य करने को तैयार नहीं हैं । रचनात्मक कार्यक्रम उनको चित्ताकर्षक नहीं लगा । वे अपनेको समाजका सुधार करनेवाले लोगों में नहीं गिनते और उनकी राय में समाज-सुधारके नीरस कार्यक्रम के द्वारा सरकारसे सत्ता नहीं छीनी जा सकती। वे तो 'अहिंसामय' घूंसा जमाने के पक्षमें हैं। उन्हें रचनात्मक कार्यक्रम बहुत ही थोथा मालूम होता है । वे इस बातको सोचना भी नहीं चाहते कि इस प्रकार बच्चोंकी तरह गुस्सा दिखाकर हम सरकारको परास्त कर भी दें, पर गम्भीरता और परिश्रमपूर्वक संगठन और रचनात्मक कार्य किये बिना हम एक दिन भी देशका शासन नहीं चला सकते ।

हमें जेलोंमें, जैसा कि मौ० मुहम्मद अली कहा करते हैं, 'गलत निमित्त बनाकर' न जाना चाहिए। जैसे-तैसे जेल जानेसे स्वराज्य नहीं मिल सकता और न कानून-