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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

क्षय प्रतीत हो तो वह जलवायु परिवर्तन और पौष्टिक भोजनकी सलाह देता है । आप उस चिकित्सकको सनकी कहिएगा या सतर्क और ईमानदार ?

मुझे श्री केलकरके सुझाव के अनुसार बम्बई परिषद्के[१] समय जो कुछ करना चाहिए था, यदि मैं उसे कर गुजरता तो वह मेरी बुद्धिहीनता न सही मिथ्याचार और उदासीनता तो अवश्य ही कहलाती । वह यदि मूर्खता नहीं तो नरमदलीय मित्रोंको जो कुछ दिया जा चुका था, उससे ज्यादा देना मिथ्याचार होता, क्योंकि भारतीय आकाश मुझे तब स्वच्छ नीलवर्णका लग रहा था और ऐसा मालूम होता था कि वह वैसा ही रहेगा । मेरे निदानको गलत बताया जा सकता है, पर उसपर आधारित मेरे निर्णयको दोष नहीं दिया जा सकता। और सम्भवतः मैं उन मांगों- पर पर्दा भी नहीं डाल सकता था, खासकर वाइसरायकी कलकत्तेकी उस घोषणाके बावजूद जिसमें यह कहा गया था कि खिलाफत और पंजाबके मामलोंमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए और चूंकि सुधारोंको[२]अभी हाल ही में मंजूर किया गया है इसलिए उनमें वृद्धिकी कोई आशा नहीं की जानी चाहिए। यदि में यह न कहता कि हमारी माँगें सुनिश्चित और बिलकुल साफ हैं, तो वह वाइसराय और नरमदलीय मित्रोंके प्रति भी अन्याय होता । सामूहिक सविनय अवज्ञाको उस समय स्थगित करना एक कमजोरी होती । परन्तु जब चौरीचौराका क्षितिज अन्धकारमय दिखा तब मुझे रोगका दूसरा ही रूप दिखाई दिया। यदि अब मैं बहुत ही साफ शब्दोंमें यह घोषित न करता कि मरीजके इलाजमें आमूल परिवर्तन आवश्यक है, तो यह मेरी जड़ता होती । चौरीचौरा के बाद सविनय अवज्ञाको स्थगित न करना एक अक्षम्य दुर्बलता ही होती । मैं पाठकको यह विश्वास दिलाता हूँ कि इस निर्णयका बारडोलीके तैयार न होनेसे कोई सम्बन्ध नहीं था । क्योंकि मेरे विचारमें बारडोली ताल्लुका, संघर्षकी पूरी-पूरी योग्यता रखता था। मैं यह बात 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन 'के स्तम्भों में कई बार कह चुका हूँ कि मैं बारडोलीको संघर्ष के लिए बिलकुल तैयार मानता हूँ ।

असलियत यह है कि आलोचक सविनय अवज्ञाके गूढ़ार्थों को समझ नहीं रहे हैं । उसके साथ 'सविनय 'का जो जबरदस्त विशेषण लगा हुआ है, अनजाने ही वे उसकी उपेक्षा करने लगते हैं ।

बारडोली के निर्णयपर मैं जितना ही विचार करता हूँ और दिल्लीमें की गई बहसों और बातचीतोंको मन-ही-मन जितना दोहराता हूँ, उतना ही मुझे यह विश्वास होता जाता है कि वह निर्णय ठीक था और प्रान्तोंको फिलहाल सभी उम्र कार्रवाइयाँ रोक देनी चाहिए, चाहे इसके कारण हमें कमजोर ही क्यों न समझा जाये और हमें जनताकी वाहवाही और उसके समर्थनसे हाथ ही क्यों न धोने पड़ें।

ऐसी मूर्तिपूजा पाप है

यद्यपि मैं खुद ही मूर्तिपूजक हूँ, किन्तु जैसा कि मेरे मित्र अपने अनुभवसे जानते हैं, मैं मूर्तिपूजाका विरोधी भी हूँ । मूर्तिपूजाकी जड़ें मनुष्यके हृदयमें हैं, और

  1. नेताओंको परिषद्, १४ और १५ जनवरी, १९२२ ।
  2. मॉन्टेग्यु - चैम्सफोर्ड सुधार ।